Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७९१ स्थितिके भेदोंमें निरन्तरस्थितिको कहकर सान्तरस्थितिका कथन करते हैं
संखेजसहस्साणिवि, सेढीरूढम्मि सांतरा होति ।
सगसगअवरोत्ति हवे, उक्कसादो दु सेसाणं ।।९४६ ॥ अर्थ - सम्यक्त्व. देशमयम. सकलसंयम, उपशम अथवा क्षपकश्रेणीके सम्मुख हुए ऐसे मिथ्यात्व, असंयत, देशसंयत, अप्रमत्त और अपूर्वकरणादि तीनगुणस्थानवर्ती, उपशम या क्षपकश्रेणी चढ़नेवाले जीवोंके सान्तर (अर्थात् एक-एककम होनेका नियम नहीं है, क्योंकि स्थितिकाण्डक व बंधापसरणके द्वारा एकसाथ स्थितिका घात व अल्पस्थितिका बन्ध होनेसे) स्थितिके भेद संख्यातहजार हैं तथा शेष जीवों के अपनी-अपनी उत्कृष्टस्थितिसे जघन्यस्थितिपर्यन्त एक-एकसमयकम क्रममें निरन्तरस्थितिके भेद हैं।
विशेषार्थ - अध:प्रवृत्तकरणमें प्रथमसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यंत ज्ञानावरणादि प्रकृतिकी अपने योग्य अन्त:कोटाकोटीप्रमाण स्थिति बाँधता है। इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् पल्यका असंख्यातवाँभागप्रमाणकम बाँधता है। इसके अन्तर्मुहूर्त के बाद उससे भी पल्य का असंख्यातवाँभागप्रमाण कम बाँधता है। इस प्रकार संख्यातहजारबार (स्थितिबन्धापसरण) करके उस करणको पूर्णकर अपूर्वकरणअनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायमें भी अपने-अपने स्थितिबन्धको अल्पकरके उतनी-उतनीबार घटाकर वेदनीयकर्मकी १२ मुहूर्त, नाम व गोत्रकी आठमुहूर्त और शेषकर्मोकी एकमुहूर्तप्रमाण स्थिति बाँधता है। इसप्रकार सान्तर-स्थितिके संख्यातहजार भेद जानना तथा संज्ञी पर्याप्त -अपर्याप्तबिना अवशेष १२ जीवसमासोंके “एयं पण कदि पपणं' इत्यादि १४४वें माथा सूत्रसे "बासूप' इत्यादि १४८वें गाथासूत्रपर्यन्त पूर्वमें स्थितिबन्धके कथनमें जघन्यस्थिति व उत्कृष्टस्थिति कही है सो उत्कृष्ट-स्थितिसे जघन्यस्थितिपर्यन्त एक-एकसमयकम क्रमसे निरन्तर स्थितिके भेद जानने ।
आगे स्थितिभेदोंके कारणरूप स्थितिबंधाध्यवसायस्थान मूलप्रकृतियोंके कितने होते हैं सो कहते हैं
आउट्ठिदिबंधज्झवसाणट्टाणा असंखलोगमिदा । णामागोदे सरिसं, आवरण दु तदियविग्धे य।।९४७ ॥ सव्वुवरि मोहणीये, असंखगुणिदक्कमा हु गुणगारो। पल्लासंखेजदिमो, पयडिसमाहारमासेज ॥९४८ ॥जुम्मं ॥ अर्थ - आयुकर्म स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान सबसे स्तोक होने पर भी यथायोग्य