Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७७५
आबाहं बोलाविय, पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु। तत्तो विसेसहीणं, बिदियस्सादिमणिसेओत्ति ॥९२०॥ बिदिये बिदियणिसेगे, हाणी पुब्बिल्लहाणि अद्धं तु।
एवं गुणहाणि पडि, हाणी अद्धद्धयं होदि ॥९२१ । जुम्मं ।।
अर्थ - ज्ञानावरणादिकर्मके स्थितिबन्धमें आबाधाकालके पश्चात् प्रथमसमयकी प्रथमगुणहानिके प्रथमनिषेकमें नहा हाय देता है और उसके कगर द्वितीयगुणहानिके प्रथमनिषेकपर्यन्त एक-एक चयरूपसे हीन-हीनद्रव्य दिया जाता है तथा द्वितीयगुणहानिके दूसरेनिषेकमें द्वितीयगुणहानिके ही प्रथमनिषेकसे एकचयकमप्रमाण द्रव्य जानना सो प्रथमगुणहानिमें निषेक-निषेक प्रतिहानिरूपचयका प्रमाण था उससे द्वितीयगुणहानिमें हानिरूप चयका प्रमाण आधा-आधा जानना चाहिए। इसी प्रकार ऊपर भी प्रत्येक गुणहानि में हानिरूप चय का प्रमाण आधा-आधा होता है।
दव्वं ठिदिगुणहाणीणद्धाणं दलसला णिसेयछिदी।
अण्णोण्णगुणसलावि य, जाणेजो सव्वठिदिरयणे ॥९२२॥ अर्थ - सर्वकर्मोकी स्थितिरचनामें द्रव्य, स्थितिआयाम, गुणहानिआयाम, दल-शलाका अर्थात् नानागुणहानि, निषेकच्छेद अर्थात् दोगुणहानि और अन्योन्याभ्यस्तराशि ये छहराशि जानना।।
__विशेषार्थ - कर्मरूपसे परिणत पुद्गलपरमाणुका प्रमाण सो द्रव्यराशि, पूर्वोक्त-प्रकार कर्मस्थिति के समयोंका प्रमाण स्थितिराशि, जबतक दूना-दूना हीन द्रव्य न दिया जावे तबतक एक गुणहानि रहती है ऐसी गुणहानियोंमें समयोंका प्रमाण सो गुणहानि-आयामराशि, सर्वस्थिति में जितनी गुणहानि पाई जावे उनका प्रमाण नानागुणहानिराशि, गुणहानिआयामके प्रमाणको दूना करनेपर जो प्रमाण हो वह दो गुणहानि राशि जानना तथा नानागुणहानि का जितना प्रमाण हो उतने प्रमाण दो के अंक लिखकर परस्पर गुणाकरके जो प्रमाण हो सो अन्योन्याभ्यस्तराशि जाननी चाहिए। निषेक प्रथम द्वितीय तृतीय । चतुर्थ पञ्चम
गुणहानि | गुणहानि | गुणहानि | गुणहानि | गुणहानि | गुणहानि २८८
'७२ सप्तम ३२० १६० ८०
२० षष्ठ । ३५२
षष्ठ
अष्टम
१८
१. गाथा ९१४ से ९२१ तक पुनरुक्त हैं। ये आठगाथाएँ वे ही हैं जो गाथा १५५ से १६२ तक हैं। प्रकरण मिलाने के लिए पुन: यहाँ पर लिख दी गई हैं।