Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६०३
५ प्रकृतिक | २८-२४-२३-२२-२१ | २ | १३-१ प्रकृतिक
| प्रकृतिक अपूर्वकरणमें ३ | २८-२४ व २१ प्रकृतिक ५ | ९ प्रकृतिक ४ प्रकृतिक अनिवृत्तिकरण | ६ | २८-२४-२१-१३-१२ | २ | ५ व ४ प्रकृतिक। पुरुषवेद के के सवेदभागमें
चरमसमयपर्यन्त ५ प्रकृतिका तथा २ प्रकृतिक
नपुंसक व स्त्रीवेदसहित श्रेणी
चढ़नेवालेके ४ प्रकृति का बन्ध है। अनिवृत्तिकरण | ३ | २८-२४ व २१ प्रकृतिक ४ | ४-३-२ व ५ प्रकृतिक (उपशमक) अनिवृत्तिकरण | २ | ११ व ५ प्रकृतिक | १ | ४ प्रकृतिक (क्षपक) १ प्रकृतिक | १ | ४ प्रकृतिक
२ | ४ व ३ प्रकृतिक १ प्रकृतिक ३ प्रकृतिक
३ व २ १ प्रकृतिक २ प्रकृतिक
| २ व १ प्रकृतिक १ प्रकृतिक
१ प्रकृतिक १ प्रकृतिक १ | १ प्रकृतिक
• | 0 (सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें) अथानन्तर नामकर्म के बन्ध-उदय व सत्त्वस्थानों के त्रिसंयोगी भङ्ग कहते हैं
णामस्स य बंधोदयसत्तट्ठाणाण सव्वभंगा हु।
पत्तेउत्तं व हवे तियसंजोगेवि सव्वत्थ ॥६९२ ।। अर्थ - नामकर्म के बन्ध-उदय व सत्त्वस्थानों के सर्वभङ्ग जिसप्रकार पृथक्-पृथक् कहे थे उसीप्रकार त्रिसंयोग में भी सभी जगह भङ्ग होते हैं, ऐसा स्पष्ट जानना। अब उन्हीं त्रिसंयोगी भङ्गों को गुणस्थानों में कहते हैं
छण्णवछत्तियसगइगि दुगतिगद्ग तिण्णिअट्ठचत्तारि । दुगदुगचदु दुगपणचदु चदुरेयचदू पणेयचदू ।।६९३ ॥
१ प्रकृतिक