Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ७००
क्षायोपशमिक वाचक, क्षायोपशमिक दशपूर्वधर, क्षायोपशमिक चतुर्दशपूर्वधर; ये तथा इसीप्रकार के और भी अन्य क्षायोपशमिकभाव हैं।
अर्थ - औदयिकभावके ४ गति, ३ वेद, ४ कषाय, एकमिध्यात्व, ६ लेश्या, १ असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान इसप्रकार २१ भेद हैं।
**ins
ओदयिगा पुण भावा, गदिलिंगकसाय तह य मिच्छत्तं । लेस्सासिद्धासंजम अण्णाणं होंति इगिवीसं ॥ ८१८ ॥
जीवतं भवतायी हवंति परिणामा ।
इदि मूलुत्तरभावा भंगवियप्पे बहू जाणे ।। ८१९ ।।
अर्थ - जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व ये तीन पारिणामिकभाव है। इसप्रकार मूलभाव ५ और उत्तरभाव ५३ हैं और इनके भी द्विसंयोगादि भङ्ग किये जायें तो बहुत हो सकते हैं ऐसा जानना चाहिये ।
विशेषार्थ आयु आदि प्राणोंका धारण करना जीवन है। वह अयोगीके अन्तिमसमयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि सिद्धोंके, प्राणोंके कारणभूत आठों कर्मोंका अभाव है। इसलिए सिद्ध, जीव नहीं हैं, अधिक से अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं।
शङ्का - सिद्धों के भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि सिद्धों में जीवत्व उपचार से है और उपचार को सत्य मानना ठीक
१.
२.
३.
नहीं है।
सिद्धों में प्राणोंका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता इससे ज्ञात होता है, कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है, किन्तु वह कर्मके विपाकसे उत्पन्न होता है, क्योंकि 'जो जिसके सद्भाव और असद्भाव का अविनाभावी होता है वह उसका है ऐसा कार्य-कारणभावके ज्ञाता कहते हैं' ऐसा न्याय है। इसलिये जीवत्वभाव औदयिक है, यह सिद्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्रमें जीवत्वको जो पारिणामिक कहा है वह प्राणोंको धारण करनेकी अपेक्षासे नहीं कहा है, किन्तु चैतन्यगुणकी अपेक्षासे वहां वैसा कथन किया है, इसलिये वह कथन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता ।
ध.पु. १४५. १८-११ ॥
“गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कै कैकैकषड्भेदाः" (त.सू.अ. २-६)
"जीवभव्या भव्यत्वानि च" (त.सू.अ. २- ७)