Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७३६ विभा अथवा चक्षुदर्शन-कुश्रुत-विभड़के संयोगरूप त्रिसंयोगीभङ्ग भी तीन हैं एवं चारोंके संयोगरूप एक चतु:संयोगीभंगको मिलाकर सर्व (१+३+३+१) ८ भङ्ग हुए। चक्षुदर्शनके ऊपर स्थापित अचक्षुदर्शनमें प्रत्येकभंग एक तथा अधस्तनवर्ती चक्षुदर्शन-विभंग-कुश्रुत व कुमतिज्ञानके संयोगसे द्विसंयोगीभंग ४, अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन व कुमतिज्ञान या अचक्षुदर्शन-चक्षुदर्शन व कुश्रुतज्ञान अथवा अचक्षुदर्शनचक्षुदर्शन व विभंगज्ञान या अचक्षुदर्शन व कुपति-कुश्रुतज्ञान या अचक्षुदर्शन व कुमति-विभंगज्ञान, अथवा अचक्षुदर्शन व कुश्रुत-विभंगज्ञानके संयोगसे त्रिसंयोगीभंग ६ हैं एवं अचक्षुदर्शनचक्षुदर्शन, कुमतिकुश्रुतज्ञान अथवा अचक्षुदर्शन-चक्षुदर्शन, कुमति-विभङ्गज्ञान या अचक्षु व चक्षुदर्शन, कुश्रुत व विभंगज्ञान या अचक्षुदर्शन व कुमति-कुश्रुत व विभंगज्ञानके संयोगसे चतु:संयोगीभङ्ग चार तथा अचक्षु व चक्षुदर्शन, विभङ्ग-कुश्रुत व कुमतिज्ञान इन पाँचके संयोगसे पंचसंयोगीभंग एक है। इसप्रकार ये सर्वमिलकर (१+४+६+४+१) १६ भंग हैं। अचक्षुदर्शनके ऊपर दानलब्धिको स्थापित किया इसमें प्रत्येकभंग एक
और अधस्तनवर्ती अचक्षुदर्शन आदिके संयोगसे द्विसंयोगीभंग ५, त्रिसयोगीभंग १०, चतुःसंयोगीभंग १०, पंचसंयोगीभंग ५, छहसंयोगीभंग एक ये सर्वमिलकर (१+५+१०+१०+५+१) ३२ हुए। इसीप्रकार एक-एक पदके प्रति दूने-दूने भंग होते हैं सो उनमें प्रत्येकभंग तो सर्वत्र एक-एक ही है, किन्तु द्वि-त्रिचतुःसंयोगी आदि भंग अधस्तनवर्ती भावोंके संयोगके बदलनेसे जितने-जितने हों उतने जानना । तद्यथा
लाभलब्धिमें ६४, भोगलब्धिमें १२८, उपभोगलब्धिमें २५६, वीर्यलब्धिमें ५१२, मिथ्यात्वमें १०२४, अज्ञानमें २०४८, असंयममें ४०९६, असिद्धत्वमें ८१९२, जीवत्वमें १६,३८४ भंग होते हैं। यहाँ १५वें जीवपदमें इतने भंग किसप्रकार होते हैं सो कहते हैं- प्रत्येकभंग १, द्विसंयोगी और चौदह संयोगीभंग १४-१४, तीनसंयोगी व १३ संयोगीभंग दो कम गच्छप्रमाणका एकबार संकलनमात्र अर्थात् ९१-९१ हैं। चतु:संयोगी व १२ संयोगीभंग तीन कम गच्छ (१५-३-१२) का दोबार संकलनमात्र अर्थात् ( १२४१३५१.४) ३६४-३६४ हैं। पंचसंयोगी और ११ संयोगीभंग चार कम गच्छ (१५४-११) का तीनबार संकलनमात्र ( १९४१२.१३२१४ ) अर्थात् १००१-१००१, ६ संयोगी व १० संयोगीभंग ५ कम गच्छ (१५-५=१०) का चारबार संकलनमात्र ( १७९९.१२४१३५१४) २००२-२००२ हैं। सातसंयोगी व नौसंयोगीभंग ६ कम गच्छका ५ बार संकलनमात्र अर्थात् ३००३-३००३ प्रमाण, आठसंयोगी भंग ७ कम गच्छ (१५-७-८) का छहबार संकलनमात्र अर्थात् ३४३२ प्रमाण हैं। इसप्रकार १५वें जीवपदमें १६३८४ भंग जानना सो यह प्रमाण "पण्णट्ठी" का चतुर्थांश जानना, क्योंकि पण्णट्ठी संज्ञा ६५,५३६ रूप संख्याकी है। यहाँ एकबार, दोबारादि संकलनका तथा भंग निकालनेका विधान जिसप्रकार गोम्मटसारजीवकाण्डके 'ज्ञानाधिकार' में श्रुतज्ञानके अक्षरोंका वर्णन करते समय "पत्तेयभंगमेगं" इत्यादि गाथामें कहा है उसीप्रकार यहाँ भी जानना। . १. “पत्तेयभंगमेगं बेसंजोगं विरूवपदमेत्तं । तियसंजोगादिपया रूवाहियवार हीणापद संकलिद।"
(गो.जी.गा. ३५४ की बड़ी टीका पृ. ७५२ पर, उद्धृत)