Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७५१
पदार्थ तथा उनके ऊपर काल, ईश्वर, आत्मा, नियति व स्वभावरूप ५ पद लिखना। इसप्रकार १४४४९४५=१८० क्रियावादियोंके भेद होते हैं।
विशेषार्थ – स्वत: जीव कालसे अस्ति किया जाता है, परसे जीव कालसे अस्ति किया जाता है, नित्यत्वसे जीव कालसे अस्ति किया जाता है, अनित्यपनेसे जीव कालसे अस्ति किया जाता है, इसप्रकार चारभंग हुए तथा जीवके स्थानपर क्रममे अजीवादिककी अपेक्षा चार-चार भंग होनेसे ९ पदार्थोके परिवर्तनमें (९x४) ३६ भंग कालसे हुए। कालके स्थानपर क्रमसे ईश्वरादि' कहने पर ३६३६ भंग होते हैं। इसप्रकार आत्मा, रियति व स्वभावके बदलनेसे सर्व (३६४५) १८० भंग होते हैं। काल ईश्वर
आत्मा नियति स्वभाव जीव-अजीव पुण्य-पाप आम्रव-बन्ध संवर-निर्जरा मोक्ष
पर नित्य अनित्य अस्थि सदो परदोवि य, णिच्चाणिच्चत्तणेण य णवत्था ।
एसिं अत्था सुगमा, कालादीणं तु बोच्छामि ।।८७८ ॥ अर्थ – अस्ति, स्वतः या परतः, नित्यपनेसे या अनित्यपनेसे इन पाँच पदोंका तथा नौ पदार्थोंका अर्थ सुगम है तथा कालवादादि का अर्थ कहूँगा ।
विशेषार्थ -- अस्तिका अर्थ 'है' ऐसा होता है सो क्रियावादी वस्तुको अस्तिरूप ही मानकर क्रियाका स्थापन करते हैं। अपने स्वरूप चतुष्टयसे अस्ति मानते हैं और परचतुष्टयसे भी अस्तिरूप ही मानते हैं, नित्यपनेसे शाश्वत अस्तिरूप मानते हैं, अनित्यपनेसे क्षणिक अस्तिरूप मानते हैं। इसप्रकार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नौ पदार्थोंको मानते हैं सो इन १४का अर्थ तो सुगम है, अत: इनका विशेष व्याख्यान नहीं किया। कालवादादि का अर्थ क्रम से कहते हैं
कालो सव्वं जणयदि, कालो सव्वं विणस्सदे भूदं।
जागत्ति हि सुत्तेसु वि, ण सकदे वंचिद् कालो।।८७९॥ अर्थ - काल ही सबको उत्पन्न करता है, काल ही सबका नाश करता है, सोते हुए प्राणियोंको काल ही जगाता है सो ऐसे कालको ठगनेमें कौन समर्थ हो सकता है ? इसप्रकार कालसे ही सब कार्य मानना कालवाद कहलाता है।
१. प्रा.पं.सं.पृ. ५४५।
२. प्रा. पंचसंग्रह पृ. ५.४७ श्लोक २५