Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 795
________________ गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७५६ पांडवोंको डाली' ऐसी प्रसिद्धि हो गई। इसप्रकार लोकवादी लोकप्रवृत्ति को ही सर्वस्व मानते हैं। अब नेमिचन्द्राचार्य उपर्युक्त सभी मतों का विवाद मिटानेका विधान बताते हैंजावदिया वयणवहा, तावदिया चेव होति णयवादा। जावदिया णयवादा, तावदिया चेव होंति परसमया ॥८९४ ।। अर्थ – जितने वचन के मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय विशेषार्थ - जो कुछ भी वचन बोले जाते हैं वे किसी अपेक्षा से कहे जाते हैं अतः जहाँ जो अपेक्षा है वही नय है, किन्तु जहाँ जिसको अन्य अपेक्षासे रहित ग्रहण करे वही मिथ्यामत हो जाता है इसलिए जितने वचनके प्रकार हैं उतने नय और जितने नय उतने मिथ्यामत हैं। "एते सर्वेऽपि नया: एकान्तावधारणगर्भा मिथ्यादृष्टयः; एतैरध्यवसितवस्त्वभावात्। (ज.ध.पु.१ पृ. २४५)। मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्ख पडिबद्धा| अर्थात् ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर वस्तुका निश्चय कराते हैं तो मिथ्या हैं, क्योंकि एक दूसरे नयकी अपेक्षाके बिना ये नय जिसप्रकारकी वस्तुका निश्चय कराते हैं, वस्तु वैसी नहीं है। अतः “मिच्छादिट्टी सब्चे वि णया सपक्ख पडिबद्धा" इत्यादि ज. घ. गाथा १०२ के इस पूर्वार्ध में कहा है- केवल अपने-अपने पक्षसे प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्या हैं। आगे परसमयवाले मिथ्यामती वचन किसप्रकार मिथ्या हैं, उसका कारण बताते हैं परसमयाणं वयणं, मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं, सम्म खु कहंचिवयणादो ॥८९५॥२ अर्थ - परमतके वचन 'सर्वथा' रूप कहने से नियमसे असत्य होते हैं और जैनमतके वचन 'कथंचित्' बोलने से सत्य हैं। विशेषार्थ - जैनमत स्याद्वादरूप है वह अनन्तधर्मस्वरूप वस्तुको 'कथंचित्' वचनसे कहता है इसलिए सत्य है, क्योंकि एकवचनसे वस्तुका एकधर्म ही कहा जाता है। यदि कोई सर्वथा कहे कि यही वस्तुका स्वरूप है तो शेष धर्मोके अभावका प्रसंग होने से वह भी असत्य कहलायेगा | अन्यवादी वस्तुके एकधर्मको लेकर यही है ऐसे सर्वथा' रूप वचनसे वस्तुका स्वरूप कहते हैं सो पूर्वोक्त हेतुसे असत्य हैं। जैसे-- वस्तु द्रव्यको अपेक्षा नित्य है, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है अत: जैनमत सत्य है। १. प्रवचनसार परिशिष्ट; जयधवल पु. १ पृ. २४५। २. प्रवचनसार परिशिष्ट, ज.ध.पु. १ पृ. २४५ ।

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