Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 793
________________ गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ७५४ अर्थ - जीवादि ९ पदार्थों में से एक-एकको सहभंग से जानना जैसे कि 'जीव' अस्तिस्वरूप है ऐसा कौन जानता है तथा जीव 'नास्ति' स्वरूप है ऐसा कौन जानता है, जीव अस्ति नास्तिरूप है ऐसा कौन जानता है अथवा अवक्तव्य है ऐसा कौन जानता है और शेष तीनभंग मिले हुए इसप्रकार जीव इन ७ भंगरूप है ऐसा कौन जानता है ! इन ७ नयोंसे गुणा करनेपर ( ७x९ ) ६३ भंग होते हैं तथा पहले 'शुद्धपदार्थ' ऐसा लिखना उसके ऊपर अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति और अवक्तव्य ये चार लिखना सो इन दोनों पंक्तियोंसे चारभंग उत्पन्न होते हैं जैसे- शुद्धपदार्थ अस्तिरूप हैं, ऐसे कौन जानता है, शुद्धपदार्थ नास्तिरूप हैं ऐसा कौन जानता है, शुद्धपदार्थ अस्तिनास्तिरूप है ऐसा कौन जानता है, शुद्धपदार्थ अवक्तव्य है ऐसा कौन जानता है ? इसप्रकार इनको उपर्युक्त ६३ भंगोंसे मिलानेसे (६३+४) ६७ भंग अज्ञानवादियोंके होते हैं। अज्ञानवादी वस्तु को नहीं जानना ही मानते हैं। “६३ भंगों की रचना" जीव- अजीव-आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा मोक्ष - पुण्य-पाप सत् असत् सदसत् अवाच्य सदवाच्य असदवाच्य सदसदवाच्य " ४ भंगों की रचना " सत् असत् सदसत् अवाच्य शुद्धपदार्थ अथानन्तर वैनयिकवादके मूलभंग कहते हैं - - - मणवयणकायदाणगविणबी सुरणिवड़णाणिजदिवुहे । बाले मादुपिदुम्मि य, कादव्वो चेदि अडचऊ ॥। ८८८ ।। अर्थ - देव, राजा, ज्ञानी, यति, बूढ़ा, बालक, माता और पिता इन आठकी मन-वचन-काय तथा दान देकर विनय करना चाहिए । इसप्रकार वैनयिकवादके ८x४= ३२ भेद हैं। (विनयवादी गुणअवगुणकी परीक्षारहित विनयसे ही सिद्धि मानते हैं ।) " ३२ भंगोंकी रचना' सुर-नृपति-यति- ज्ञानी वृद्ध-बाल-माता-पिता मन वचन काय दान 19 सच्छंददिट्ठीहिं वियप्पियाणि, तेसट्ठित्ताणि सवाणि तिणि । पाखंडिणं वाउलकारणाणि, अण्णाणिचित्ताणि हरंति ताणि ॥। ८८९ ।। ' १. प्रा. पं.स.पू. ५४६ श्लोक २३ |

Loading...

Page Navigation
1 ... 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871