Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 792
________________ गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७५३ णत्थि य सत्तपदत्था, णियदीदो कालदो तिपंतिभवा। चोइस इदि णत्थित्ते अक्विरियाणं च चुलसीदी॥८८५॥ जुम्मं । अर्थ – सर्वप्रथम 'नास्ति' पद लिखना, उसके ऊपर 'स्वसे' व 'परसे' ये दो पद लिखना चाहिए। उनके ऊपर पुण्य-पापके बिना सातपदार्थ लिखना, इनके ऊपर कालादि ५ पद लिखना चाहिए। इसप्रकार चारपंक्तियोंका परस्पर गुणा करनेपर १४२४७५५-७० भंग तथा एकबार पुनः 'नास्ति' पद लिखना, उसके ऊपर सातपदार्थ लिखने, उनके ऊपर नियति व काल ये दो पद लिखना, इसप्रकार तीनपंक्तियोंका गुणा करनेसे (१४७४२) १४ भंग होते हैं सो इनको उपर्युक्त ७० भंगोंमें जोड़नेसे (७०+१४) ८४ भंग अक्रियावादियोंके होते हैं। ७० भङ्ग की रचना स्वभाव नियति काल ईश्वर आत्मकृति । जीव - अजीव - आम्नव - संवर - निर्जरा - बन्ध - मोक्ष स्वतः परतः नास्ति १४ भन की रचना नियति जीव-अजीव-आसव-संवर-निर्जरा-बन्ध-मोक्ष नास्ति विशेषार्थ - जीव स्वत: कालसे नास्ति किया जाता है, जीव परत: कालसे नास्ति किया जाता है। इसीप्रकार जीवके स्थानपर अजीवादि कहनेपर १४ भंग एक कालमें हुए तथा कालके स्थानपर ईश्वरादि कहनेपर ७० भंग होते हैं तथा जीव-नियति से नास्ति किया जाता है, जीव कालसे नास्ति किया जाता है एवं जीवके स्थानपर अजीवादि कहनेपर १४ भेद होते हैं। इसप्रकार सर्वमिलकर (७०+१४) ८४ भंग अक्रियावादियों के होते हैं। अक्रियावादी वस्तुको नास्तिरूप मानकर क्रियाका स्थापन नहीं करता है। अथानन्तर अज्ञानवाद के भङ्ग कहते हैं को जाणदि णवभावे, सत्तमसत्तं दयं अवच्चमिदि। अवयणजुद सत्तसयं, इदि भंगा होति तेसट्ठी॥८८६॥ को जाणदि सत्तचदू, भावं सुद्धं खु दोण्णिपंतिभवा। चत्तारि होति एवं, अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी ।।८८७ ।।जुम्मं ।।

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