Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७५५
अर्थ- इसप्रकार स्वच्छंद अर्थात् अपना मनमाना जिनका श्रद्धान है ऐसे पुरुषों ने ये ३६३ भेद कल्पित किये हैं जो पाखण्डी जीवोंको व्याकुलता उत्पन्न करनेवाली और अज्ञानीजीवोंके चित्तका हरण करनेवाली है। आगे अन्य भी एकान्तवादोंका कथन करते हैं
आलसडो णिरुच्छाहो, फलं किंचिं ण भुंजदे।
थणक्खीरादिपाणं वा, पउरुसेण विणा ण हि ।।८९०॥ अर्थ – जो आलस्यसहित हो तथा उत्साह व उद्यमरहित हो वह कुछ भी फल नहीं भोग सकता । जैसे- स्तनोंका दूध पीना पुरुषार्थके बिना नहीं बन सकता, उसीप्रकार पुरुषार्थते ही सबकार्य सिद्ध होते हैं, ऐसा मानना पौरुषवाद है। . . .
दइवमेव परं मण्णे, धिप्पउरुसमणात्थयं ।
एसो सालसमुत्तुंगो, कण्णो हण्णदि संगरे ॥८९१॥ अर्थ – मैं केवल दैव (भाग्य) को उत्तम मानता हूँ, निरर्थक पुरुषार्थको धिकार हो। देखो किलेके समान ऊँचा कर्ण राजा युद्धमें मारा गया। इसप्रकार दैववादसे ही सिद्धि माननेवाला दैववादी है।
संजोगमेवेति वदंति तण्णा, णेवेकचक्केण रहो पयादि । अंधो य पंगू य वणं पविट्ठा, ते संपजुत्ता णयरं पविट्ठा ।।८९२ ॥
अर्थ - यथार्थज्ञानी दो के संयोगसे ही कार्यसिद्धि मानते हैं, क्योंकि जैसे- एक पहियेसे रथ नहीं चल सकता तथा एक अन्धा और दूसरा पंगु वनमें प्रविष्ट हुए, वन में आग लग जानेसे अन्धा व पंगु दोनों मिलकर अर्थात् अंधेके कन्धेपर पंगु चढ़कर अपने नगरमें प्रवेश कर गये। इसप्रकार संयोगप्ते ही कार्यसिद्धि माननेवाला संयोगवादी है।
सइउट्ठिया पसिद्धी, दुव्वारा मेलिदेहिं वि सुरेहि।
मज्झिमपण्डवखित्ता, माला पञ्चसुवि खित्तेव ॥८९३॥ अर्थ – एक ही बार उठी हुई लोकप्रसिद्धि देवोंसे भी मिलकर दूर नहीं हो सकती, अन्य की तो बात ही क्या ? जैसे द्रौपदीने केवल मध्यवर्ती पांडव अर्थात् अर्जुन को माला डाली, किन्तु “पाँ)
२. प्रा.पं.सं.पृ. ५४७ श्लोक ३० ।
१. प्रा.पं.सं.पृ. ५४७ श्लोक ३०। ३. प्रा.पं.सं.पृ. ५४७ श्लोक ३२१