Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७३४
देशसंयत
२२६
प्रमत्तसयत
२२६
अप्रमत्तसंयत
२२६
२८२
२८२
२४२
२४२
२०२.
अपूर्वकरण (उपशमक) सवेदअनिवृत्तिकरण (उपशमक) अवेदअनिवृत्तिकरण (उपशमक सूक्ष्मसाप्पराय (उपशमक) उपशान्तमोह अपूर्वकरण (क्षपक) सवेदअनिवृत्ति. (क्षपक) अवेदअनिवृत्ति. (क्षपक) सूक्ष्मसाम्पराय (क्षपक) क्षीणमोह
१७०
१४६
सयोगकेवली
अयोगकेवली
सिद्ध जातिपद भङ्गों का कथन करके अब सर्वपद के भेद कहते हैं
भविदराणण्णदरं, गदीण लिंगाण कोह पहुदीणं ।
इगि समये लेस्साणं, सम्मत्ताणं च णियमेण ।।८५६॥ अर्थ – पिण्डपद और प्रत्येकपदके भेदसे सर्वपद दो प्रकारके हैं। यहाँ जो भावप्तमूह एक जीवके एक कालमें एक-एकही होता है, सभी नहीं होते। जैसे-चारों गतिमें एकजीवके एककालमें एक ही गति सम्भव है चारों नहीं पाई जाती है। इसीप्रकार लिंग, कपाय, लेश्या और सम्यक्त्वमें अपने-अपने भेदोंमें से एकसमयमें एक-एक ही सम्भव हैं अत: इन भावसमूहोंको पिण्डपद कहते हैं तो ये गुणस्थानों में यथायोग्य एक जीवके एक कालमें एक-एक ही नियम से पाए जाते हैं। (तथा जो भाव एक जीवके एककालमें युगपत् भी संभव हैं उन्हें प्रत्येकपद कहते हैं।)