Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
3
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ७१३
तत्थावरणजभावा, पणछस्सत्तेव दाणपंचेव । अयदचक्के वेदगसम्मं देसम्म देसजमं ॥ ८२५ ।। राजमं तु पमत्ते, इदरे मिच्छादिजेठाणाणि । भंगे विहीण, चक्खुविहीणं च मिच्छदुगे ।। ८२६ ॥
14 कमाई कर सक
अवहिदुगेण विहीणं, मिस्सतिये होदि अण्णठाणं तु । वहिदुगेणुभयेणूणं तदो अण्णे ।। ८२७ ।।
अर्थ - मिध्यात्वादि दो, मिश्रादि तीन, और प्रमत्तादि सातगुणस्थानों में क्रमसे क्षायोपशमिक भावोंके स्थान ३-२ व ४ जानना तथा औदयिकभावका उपर्युक्त सभी गुणस्थानोंमें एक-एक ही भेद पाया जाता है। उपर्युक्त मिथ्यात्वादिगुणस्थानोंके ३-२ व ४ रूप स्थानों में क्षायोपशमिक ज्ञानावरण और दर्शनावरणके निमित्तसे उत्पन्न हुए क्षायोपशमिकभाव मिथ्यात्व और सासादनगुणस्थानमें ३ अज्ञान व २ दर्शनरूप ५ हैं, मिश्रादि तीनगुणस्थानोंमें आदिके ३ ज्ञान व ३ दर्शनरूप ६ हैं । प्रमत्तादि ७ में मन:पर्यय सहित ४ ज्ञान और तीन दर्शनरूप हैं तथा क्षायोपशमिकरूप दानादि पाँचों लब्धियाँ मिथ्यात्वसे क्षीणकषायगुणस्थानपर्यन्त पायी जाती हैं। असंयतादि चार गुणस्थानों में वेदकसम्यक्त्व एवं देशसंयतगुणस्थानमें देशसंयम पाया जाता है, किन्तु सरागसंयम प्रमत्त- अप्रमत्तगुणस्थानमें होता है। इसप्रकार यथासम्भव भाव मिलानेसे क्षायोपशमिकभावके उत्कृष्टस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान से क्षीणकषायपर्यन्त क्रमशः १०-१०-११-१२-१३-१४-१४-१२-१२-१२-१२ व १२ भावरूप जानना । (अर्थात् मिथ्यात्व और सासादनगुणस्थान में ३ अज्ञान, दो दर्शन और पाँच दानादिलब्धिकी अपेक्षा १०१० भावरूप; मिश्रगुणस्थानमें ३ मिश्रज्ञान, ३ दर्शन व ५ दानादिलब्धिकी अपेक्षा ११ भावरूप और इन्हीं ११में वेदकसम्यक्त्व मिलनेपर असंयतगुणस्थानमें १२ भावरूप; इन्हीं १२ में देशसंयम मिलाने से देशसंयतगुणस्थानमें १३; प्रमत्त व अप्रमत्तमें देशसंयम कमकरके सरागसंयम और मन:पर्ययज्ञान मिलाने से १४-१४ भावरूप तथा अपूर्वकरणसे क्षीणकपायगुणस्थानपर्यन्त चार ज्ञान, ३ दर्शन व ५ दानादि लब्धियोंकी अपेक्षा १२-१२ भावरूप उत्कृष्टस्थान हैं । )
ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसके मात्र औदयिकभाव रह सकता हो, क्योंकि चेतनारूप जीवत्वापरिणामिकभाव तो सब जीवों के होता है और औदयिकभात्र सब संसारी जीवों के पहले गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थानतक रहता है ।
गोम्मटसार कर्मकांड गाथा ८२४ में तो यह बतलाया है कि 'मिध्यादृष्टि आदि दो गुणस्थानों में क्षायोपशमिकभाव के ३ स्थान, मिश्रादि तीन गुणस्थानों में क्षायोपशनिकभाव के २ स्थान और प्रमत्त आदि सात गुणस्थानों में क्षायोपशमिकभाव के ४ स्थान होते हैं; किंतु इन सब बारह गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थान में औदयिक भाव का एक-एक ही स्थान होता है। इस गाथा से यह सिद्ध नहीं होता कि किसी भी जीव के मात्र एक औदयिकभाव हो सकता है।
(पं. रतनचन्द्र मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व, पृष्ठ ५२३)