Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७१२
नोट- सिझोंमें एक जीवस्या का मारिणामिक भोध है, भव्यत्वभाव नहीं रहता अत: पारिणामिक-पारिणामिकरूप स्वसंयोगीभन्ज नहीं होता, ऐसा प्रतीत होता है, किन्तु अस्तित्व आदिके साथ स्वसंयोगीभङ्ग बन जाता है। अब उत्तरभावों के भेद दूसरे प्रकार से कहते हैं
उत्तरभंगा दुविहा, ठाणगदा पदगदात्ति पढमम्हि ।
सगजोगेण य भंगाणयणं णस्थिति णिद्दि] ॥८२३॥ अर्थ - उत्तरभावोंके भंग स्थानगत और पदगतके भेदसे दो प्रकारके हैं। एक जीवके एक कालमें जितने भाव पाये जाते हैं उनके समूहका स्थान है उसकी अपेक्षा जो भंग होते हैं वे स्थानगतभंग हैं तथा एक जीवके एक कालमें जो भाव पाए जाते हैं उनकी एक जातिके या पृथक्-पृथकू जो नामपद हैं उसकी अपेक्षा भंग होते हैं वे पदगतभंग हैं। एक जीवके एक कालमें एक स्थानमें कोई अन्यस्थान सम्भव नहीं है इसलिये स्थानगत भंगोंमें स्वसंयोगी भंग नहीं पाये जाते हैं, ऐसा कहा है।
अब गुणस्थानकी अपेक्षा भावोंके स्थान और उनमें पाए जानेवाले भावोंकी संख्या ३ गाथाओंमें बताते हैं
मिच्छदुगे मिस्सतिये, पमत्तसत्ते य मिस्सठाणाणि। तिग दुग चउरो एक्वं, ठाणं सव्वत्थ ओदयिगं ॥८२४ ॥
१.शंका-गोम्मटसार कर्मकांड में ५ भावों के वर्णन में एक जीव के एक समय में कितने भाव हो सकते हैं? क्या मात्र एक औदयिकभाव भी हो सकता है ? क्या पारिणामिकभाव और क्षायोपमिकभाव न हों और केवल औदयिकभाव हो ऐसा भी सम्भव है? गाथा ८२४ का क्या अभिप्राय है?
समाधान- एक साथ एक जीव के कम-से-कम तीन भाव हो सकते हैं १. पारिणामिक, २. क्षायोपशमिक, ३. औदयिक । अधिक-से-अधिक एक जीव के एक साथ (औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक) पाँचों भाव हो सकते हैं।)
क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीव उपशांतमोह गुणस्थान में जब चारित्रमोह का उपशम कर देता है तो उसके चारित्रमोह की अपेक्षा औपशमिकभाव, दर्शनमोहनीय की अपेक्षा झाविकभाव, ज्ञान-दर्शन-वीर्य की अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव, गतिजाति आदि की अपेक्षा औदयिकभाव तथा जीवत्व की अपेक्षा पारिणामिकभाव इस प्रकार एक जीव के एक साथ पांचों भाव सम्भव हैं। ___ गति-जाति आदि का उदय चौदहवे-गुणस्थान के अन्त तक रहता है, अतः औदयिकभाव सब गुणस्थानों में रहता है। चेतनारूप जीवत्वपारिणामिकभाव संसारी और मुक्त टीनों प्रकार के जीवों में सदा रहता है, किन्तु आयु आदि प्राणरूप जीवत्व अशुद्धपारिणामिकभाव चौदहवेंगुणस्थान तक ही रहता है। मुक्त जीवों में आयु आदि प्राण नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान. दर्शन और वीर्य की अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान तक पाये जाते हैं। जिनके उपशम या क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं है उन जीवों के औदयिक.क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये तोन भाव होते हैं।
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