Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७२६ अर्थ - जातिपद और सर्वपदभंगके भेदसे पदगतभंग २ प्रकारके हैं। जहाँ एक जातिका ग्रहण किया जावे वहाँ जातिपद समझना, जैसे- क्षायोपशमिकज्ञानके चारभेद होनेपर भी एक ज्ञानजातिका ही ग्रहण करना तथा जहाँ पृथक्-पृथक् सम्पूर्णभावोंका ग्रहण किया जाचे उनको सर्वपदभंग समझना चाहिए। इनमें जातिपदरूप क्षायिक और क्षायोपशमिकभावके पिण्डपदस्वरूप भावोंमें स्वसंयोगीभंग भी पाये जाते हैं। क्षायिकभावोंमें लब्धिके पाँच भेद हैं और क्षायोपशमिकमें ज्ञान-अज्ञान-दर्शन और लब्धि ये पिण्डपदरूप हैं, क्योंकि इनके अनेक भेद हैं, जैसे- जहाँ दान होते हुए लाभ पाया जाता है वहाँ स्वसंयोगीभग है।
"अबदुवसमगचक एवं दो उवसमस्स जादिपदो।
खड्गपदं तत्थे; खवगे जिणसिद्धगेसु दु पण चदु ।।८४५॥ अर्थ - औपशमिकभावके जातिपद असंयतादि चारगुणस्थानोंमें सम्यक्त्वरूप एकही है। उपशमश्रेणीसम्बन्धी चारगुणस्थानों में सम्यक्त्व और चारित्ररूप दो जातिपद हैं। क्षायिकभावके जातिपद्ध असंयतादि चारगुणस्थानों में क्षायिकसम्यक्त्वरूप एक तथा क्षपकश्रेणिके चारगुणस्थानोंमें सम्यक्त्व और चारित्ररूप दो जातिपद हैं। सयोग व अयोगकेवलीगुणस्थानोंमें सम्यक्त्य, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और (तीर्थरूप) लब्धि ये ५ तथा सिद्धों में इन्हीं पांचमेंसे चारित्रबिना शेष चार जातिपद जानना !
विशेष -- यहाँ सिद्धोंमें चारित्रबिना जो ४ जातिपद कहे हैं उसका अभिप्राय यह है कि सामायिकादि पाँचों चारित्रों से कोई भी चारित्र नहीं है। अधवा क्षायिक यथाख्यातचारित्र नहीं है।
मिच्छतिये मिस्सपदा, तिण्णि य अयदम्हि होति चत्तारि ।
देसतिये पंचपदा, तत्तो खिणोत्ति तिण्णिपदा ॥८४६॥ अर्थ- क्षायोपशमिकभावके जातिपद मिथ्यात्व-सासादनगुणस्थानमें अज्ञानदर्शन और लब्धिरूप ३, मिश्रगुणस्थानमें मिश्रज्ञान, दर्शन और लब्धिरूप ३, असंयतगुणस्थानमें ज्ञान, दर्शन, लब्धि और सम्यक्त्वरूप ४ एवं देशसंयत-प्रमत्त व अप्रमत्त इन तीनों गुणस्थानमें ज्ञान, दर्शन, लब्धि, सम्यक्त्व ये चार तो हैं, किन्तु देशसंयतगुणस्थान में देशसंयमरूप एक तथा प्रमत्त-अप्रमत्तमें सरागसंयम होने से एक, ऐसे पाँच-पाँच जातिपद हैं। आगे अपूर्वकरणसे क्षीणकषायगुणस्थानपर्यन्त ज्ञान, दर्शन और लब्धिरूप तीन जातिपद हैं।
मिच्छे अठुदयपदा, ते तिसु सत्तेव तो सवेदोत्ति । छस्सुहमोत्ति य पणगं, खीणोत्ति जिणेसु चदुतिदुर्ग॥८४७ ॥