Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ७०७
विशेषार्थ - अब एक जीवके एककालमें जितने भाव सम्भव हैं उसकी अपेक्षा कथन करते हैं- मिथ्यात्वादि तीनगुणस्थानोंमें मूलभाव तीन हैं। इनमें प्रत्येक भंग तो औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पृथक्-पृथक् जानना । द्विसंयोगीभंग भी औदयिक - मिश्र ( क्षायोपशमिक), औदयिकपारिणामिक एवं क्षायोपशमिक-पारिणामिकरूप तीन ही हैं। औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिकरूप त्रिसंयोग भंग एक ही है. औ औक आपोपशमिक आरोपशमिक और पारिणामिकमें पारिणामिकरूप तीन स्वसंयोगीभङ्ग, इसप्रकार सर्व (३+३+१+३) १० भङ्ग जानना । प्रत्येक, द्विसंयोगी व त्रिसंयोगी आदि भोंकी संख्या प्राप्त करनेका विधान जिसप्रकार बन्धप्रत्वयअधिकार गाथा ७९९ में कहा उसीप्रकार जानना । विवक्षितसंख्या के प्रमाणरूप अङ्कसे लेकर एक-एक कम संख्यारूप अङ्क लिखनेपर अंशराशि समझना तथा उसके नीचे एकसे लेकर एक-एक अधिकरूप अङ्क लिखनेसे हरराशिका प्रमाण होता है। प्रथम अंशसे अगली अंशराशिको और प्रथम हरराशिसे अगली हरराशिको गुणाकरके जो हरराशि प्राप्त हुई उससे अंशराशिके प्रमाण में भाग देनेपर प्रत्येक, द्विसंयोगादि भनोंका प्रमाण आता है । यहाँ मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानोंमें मूलभाव तीन हैं अतः ३-२-१ इसप्रकार क्रमसे अब लिखे और इनके नीचे १-२-३ अङ्क लिखनेसे अंश और हरराशि हुई। प्रथम तीनके अङ्कको एकका भाग देने पर (३+१) लब्ध ३ आया तो यह प्रत्येक भङ्गका प्रमाण है तथा ३ से दो को गुणाकर उसमें एक गुणा दो अर्थात् २ का भाग देनेसे (६ + २) लब्ध ३ आया जो कि द्विसंयोगी भनक प्रमाण है। पुनः ६ से एकको गुणाकरके ६०१ = ६ आये । इसमें २ गुणा तीन अर्थात् ६ का भाग देनेपर एक लब्ध आया सो यह त्रिसंयोगी भङ्गका प्रमाण है। इसी विधिसे आगे मूल व उत्तरभावोंके कथनमें भी प्रत्येक, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भङ्गका विधान जानना चाहिये। आगे असंयत, देशसंयत, प्रमत्त व अप्रमत्त इन चारगुणस्थानोंमें मूलभाव पाँच-पाँच हैं। पूर्वोक्त विधानसे परसंयोगी में प्रत्येक भङ्ग ५ और द्विसंयोगीभ १० हैं, किन्तु यहाँ औपशमिकक्षायिक्का संयोगरूप एक भक्त नहीं होनेसे ९ ही भङ्ग हैं, क्योंकि यहाँ औपशमिक और क्षायिकका कोई भेद परस्परमें नहीं मिलता तथा त्रिसंयोगी भङ्ग भी १० ही हैं, किन्तु उनमें औपशमिक - क्षायिक- औदयिक, औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक, औपशमिक क्षायिकपारिणामिकरूप तीन त्रिसंयोगी भन्न नहीं होनेसे यहाँ ७ ही त्रिसंयोगी भङ्ग हैं । चतु:संयोगीभंग पाँच हैं, किन्तु औपशमिक - क्षायिक औदयिक क्षायोपशमिक, औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक-पारिणामिक, औपशमिक- क्षायिक- औदयिक-पारिणामिकरूप तीन चतु:संयोगीभंग नहीं होने से यहाँ २ ही हैं। उपशम व क्षायिक एक साथ नहीं होते इसलिए पाँचसंयोगी भंगोंका अभाव है तथा मिश्र में मिश्र ( क्षायोपशमिक में क्षायोपशमिक), औदयिकमें औदयिक और पारिणामिकमें पारिणामिकरूप स्वसंयोगी भंग तीन हैं। उपशमसम्यक्त्वमें उपशमचारित्र और क्षायिकसम्यक्त्वमें क्षायिकचारित्रादि नहीं होते अतः औपशमिकमें औपशमिक और क्षायिकमें क्षायिकभावरूप दो भंग नहीं कहे हैं। इस प्रकार (५ +९+७+२+०+१+१+१) सर्व २६ भंग जानना ।