Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 740
________________ गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ७०१ चार अघातिया कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुआ असिद्धभाव है। वह दो प्रकार का है- अनादिअनन्त और सादि - सान्त । इनमें से जिनके असिद्धभाव अनादि - अनन्त है वे अभव्यजीव हैं और जिनके दूसरे प्रकारका है वे भव्य जीव हैं। इसलिये भव्यत्व और अभव्यत्व ये भी विपाकप्रत्ययिक ही हैं । शङ्का - तत्त्वार्थ सूत्र में इन्हें पारिणामिक कहा है, इसलिए इस कथनका उसके साथ विरोध कैसे नहीं होगा ? समाधान- नहीं, क्योंकि असिद्धत्वका अनादि-अनन्तपना और अनादि - सान्तपना निष्कारण है, यह समझकर उन्हें वहाँ पारिणामिक स्वीकार किया गया है। "दशसु प्राणेसु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् जीवति, अजीवीत्, जीविष्यति" इति वा जीवः । तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धं जीवितपूर्वत्वात् । संप्रति न जीवन्ति सिद्धा:; भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषाम् इत्यौपचारिकत्वं स्यात्, मुख्यं चेष्यते; नैष दोषः : भावप्राणज्ञानदर्शज्ञानुश्रूयात् साम्प्रतिकमपि ज्ञातव्वमस्ति । हार अर्थात् प्राण पर्यायके द्वारा भूत, भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालोंमें दशप्राणों में जीवनका अनुभव करनेसे जीता है, जीता था और जीवेगा वह जीव है। जीवका इसप्रकार लक्षण होनेपर सिद्ध भी जीव हैं, क्योंकि वे पूर्वमें अर्थात् भूतकालमें दशों प्राणके द्वारा जीते थे, किन्तु वर्तमानकालमें सिद्ध भगवान दश प्राणोंके द्वारा नहीं जीते हैं। भूतपूर्व नयकी अपेक्षा वे दशों प्राणों द्वारा जीते थे इसलिए उनके जीवत्व उपचारसे है। मुख्यनयसे भी सिद्ध भगवान जीव हैं, इसमें भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि ज्ञानदर्शनरूप भाव प्राणोंका अनुभव करनेसे वर्तमानमें भी जीव हैं। शङ्का - औपशमिकादि भाव नहीं बन सकते, क्योंकि आत्मा अमूर्त है। ये औपशमिकादिभाव कर्मबन्धकी अपेक्षा होते हैं, किन्तु अमूर्त आत्माके कर्मोंका बन्ध संभव नहीं है ? समाधान आत्माके अमूर्तत्त्वके विषयमें अनेकान्त है। यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्त ही है। कर्मबन्धरूप पर्यायकी अपेक्षा उससे युक्त होनेके कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्धस्वरूपकी अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। -M शङ्का - यदि ऐसा है तो कर्मबन्धके आवेशसे आत्माका ऐक्य हो जानेपर आत्माका कर्मोंसे भेद नहीं रहता ? समाधान यह कोई दोष नहीं, यद्यपि बन्धकी अपेक्षा अभेद है तो भी लक्षण के भेदसे आत्माका भेद जाना जाता है। कहा भी है १. ध. पु. १४ पृ. १३-१४ । २. राजवार्तिक ९-४-७ । ३. सर्वार्थसिद्धि अ. २-७।

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