Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६९२
आगे नामकर्म के बन्ध के कारण कहते हैं
'मणवयणकायवक्को माइल्लो गारवेहिं पडिबद्धो ।
असुहं बंधदि णामं तप्पडिवक्खेहिं सुहणामं ॥ ८०८ ।।
अर्थ - जो जीव मन-वचन-काथसे कुटिल हो, कपट करनेवाला हो, तीनप्रकारके गारवसे युक्त हो ( दुरभिमानी हो ) वह नरकगति, तिर्यंचगति आदि अशुभ (अप्रशस्त ) नामकर्मका बन्ध करता है तथा इसके विपरीत स्वभाववाला अर्थात् सरलयोगवाला, निष्कपट, प्रशंसा न चाहनेवाला शुभ ( प्रशस्त ) नामकर्मका बन्ध करता है ।
विशेषार्थ - 'मण वयण काय वक्को' मन-वचन और कायकी कुटिलता अर्थात् अन्यथाप्रवृत्ति । 'माइल्लो' अर्थात् मायाचारी मिथ्यात्वरूप प्रवृत्ति, झूठी चुगली करना, माण अर्थात् तोलनेके बाट व मापनेके गज (मीटर) आदि हीन या अधिक रखना, तोलनेकी तराजू (काँटा) झूठा (ठीक नहीं रखना, स्वात्मप्रशंसा, परात्मनिंदा आदिरूप मायासे । 'गारवेहिं' इष्ट द्रव्यका लाभ (ऋद्धिगार), मिष्टभोजनादिकी प्राप्ति (रसगाव), सुखद शयनादि स्थानका मिलना (सादगार ) इन सबसे 'पडिवद्ध' अर्थात् इनमें दृढचित्त होनेवाला अशुभनामकर्म को बाँधता है तथा 'तप्पडिवक्खेहिं' अर्थात् इससे विपरीत यानी योगकी सरलता, रस व सात आदि गारवोंसे रहित, धार्मिक व्यक्तियोंके प्रति आदरभाव, संसारक कारणभूत भावोंसे भीरुता, अप्रमादादि प्रत्ययोंसे शुभनामकर्म का बन्ध होता है।
आगे गोत्रकर्म के बन्ध के कारण कहते हैं
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अरहंतादिसु भत्तो सुत्तरूड़ ' पढणुमाणगुणपेही । बंधदि उच्चं गोदं विवरीदो बंधदे इदरं ॥। ८०९ ॥
अर्थ - जो जीव अरहन्तादि पञ्चपरमेष्ठियों में भक्तियुक्त हो, अध्ययनादिके लिए विचारशील एवं विनयादि गुणों का धारक हो वह जीव तो उच्चगोत्र का और इससे विपरीत कारणोंसे नीचगोत्र का बन्ध करता है।
विशेषार्थ - पंचगुरु (अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) में अतिभक्ति, जिनोक्त श्रुत में
१. "योगवक्राविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः २. प्रा.पं.सं.पू. ५९५ गाथा २७ के आधार से ।
३. परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणांच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्थ" "तद्विपर्वयोनी चैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्व" (त.सू.अ.
।।
'तद्विपरीतं शुभस्थ" (त.सू.अ. ६ सूत्र २२६२३) ।
६ सूत्र २५-२६ ) )
४. 'पटणुमा' इत्यपि पाठी प्रा. पं. संग्रहे पू. ५९५ गाथा २८ ।