Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६९०
पंचाणुव्रतरूप देशचारित्र और महाव्रतरूप सकलचारित्र इन दोनों चारित्रको घातनेवाले चारित्र मोहनीयकर्मक तीव्र अनुभागको बाँधता है। अत: उपर्युक्त कारण चारित्रमोहनीयकर्मके बन्धमें विशेषप्रत्यय है।' अथानन्तर नरकायु के बन्ध के कारण कहते हैं
'मिच्छो हु महारम्भो णीस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो । णिरयाउगं णिबंधदि पावमदी रुद्दपरिणामी ॥८०४।।
- जो नियादृष्टि ( से हिर) को बहुत आरम्भी व अपरिमित परिग्रही हो, शीलरहित हो, तीव्र लोभी हो, रौद्रपरिणामी अर्थात् हिंसादि पापकर्मोंमें आनन्द माननेवाला हो, पाप करनेमें ही जिसकी मति (बुद्धि) हो वह जीव नरकायुका तीन अनुभागसहित बन्ध करता है।
विशेषार्थ - प्राणियोंको दुःख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है, यह वस्तु मेरी है इसप्रकारका संकल्प रखना परिग्रह है। जिसके बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह हो वह बहुत आरम्भ व बहुत परिग्रहवाला कहलाता है और उसका भाव बारम्भपरिग्रहत्व है। हिंसादि कर कार्यों निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरेके धनका अपहरण, इन्द्रियोंके विषयोंमें अत्यन्त आसक्ति तथा मरनेके समय कृष्णलेश्या और रौद्रध्यानादिका होना नरकायु बन्धमें विशेप प्रत्यय हैं।' अब तिर्यञ्चायु के बन्ध के कारण कहते हैं
उम्मगदेसगो मग्गणासगो गूढहियय मादिल्लो।
सठसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधदे जीवो॥८०५ ।। अर्थ – जो जीव विपरीतमार्गका उपदेश करनेवाला हो, सच्चेमार्गका नाश करनेवाला हो, गूढ अर्थात् मायाचारी हो, जिसका विपरीत स्वभाव हो, मिथ्या आदि तीनशल्योंसे संयुक्त हो वह जीव तिर्यञ्चायुका तीव्र अनुभाग बाँधता है।
विशेषार्थ – चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे जो आत्मामें कुटिलभाव उत्पन्न होता है वह माया है, इसका दूसरा नाम निकृति है। इसे तिर्यञ्चायुके बन्धका प्रत्यय जानना। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार
५. प्रा.पं.सं.१.५९४ गाथा २२ के आधार से। २. "बदारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः" (त.सू.अ. ६/१५) एवं प्रा.पं.सं.पृ. २०८ गाथा १७७ व पृ. ५९४
गाथा २३। ३. सर्वार्थसिद्धि अ. ६ सूत्र १५ की टीका। ४. ''माया तैयायोनस्य" (त.सू.अ. ६/१६) एवं प्रा.पं.सं.पृ. १७० गाथा २०८ और पृ. ५९४ गाथा २४ ।