Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६८६
भंग हैं। ७२० अंशराशिको आगेके १ से गुणा करनेपर ७२०४१-७२०, सो उपर्युक्त १२० को आगेके ६ से गुणा किया तो १२०४६-७२० भागहर प्राप्त हुआ। इससे अंशराशि रूप ७२० में भाग देनेसे १ लब्ध
आया। यह छह संयोगी भंगका प्रमाण है। इसप्रकार सर्वभंग ६+१५+ २० +१५+६+१=६३ हैं। दशसंयतगुणस्थानमें त्रसहिंसा नहीं है, पाँच स्थावरोंकी ही हिंसा है इसलिए ५-४-३-२ व १ अंशरूपसे क्रमशः लिखने तथा इनके नीचे हररूपसे १-२-३-४ व ५ लिखना । यहाँ पूर्वोक्त प्रकार ५ को १ का भाग देनेपर ५ आये सो ये तो प्रत्येक भंग जानना। ५ को अंशरूप ४ से गुणाकरके ५४४-२० लब्ध आया। इसको १४२-२ रूप हरसे भाग दिया तो २०१२-१० आया । इतने प्रमाण यहाँ द्विसंयोगी भंग हैं। २० को ३ रूप अंशराशिसे गुणाकरनेसे २०४३-६० अंशराशि प्राप्त हुई तथा २ को ३ भागहर राशिसे गुणा किया तो ६ लब्ध आया सो इससे अंशराशि ६० को भाग देनेसे ६०+६=१० प्राप्त हुआ। इतने प्रमाणत्रिसयोगी भंग जानना । अंशराशि पूर्वोक्त ६० को अंशरूप २ से गुणाकरके ६०४२=१२० प्रमाण अंशराशि प्राप्त हुई इसमें उपर्युक्त भागहर ६ में हररूप ४ का गुणा किया तो ६x४=२४ भागहर आया सो इससे अंशराशि १२० को भाग देपर १२०३२४-५ लब्ध आया। यह चतुस्संयोगी भंगोंका प्रमाण है। पूर्वोक्त १२० रूप अंशराशिको अंश १ का गुणा करनेपर १२० लब्ध आया और उपर्युक्त भागहर राशि २४ में हर ५ का गुणा करनेसे २४४५८१२० ही प्रमाण आया सो इससे अंशराशि १२० में भाग देकर १२०१२०=१ लब्ध आया। यह पंचसंयोगी भंगका प्रमाण है। इसप्रकार देशसंयतगुणस्थानमें कायवधसम्बन्धी सर्व ५+१०+१०+५+१=३१ भंग हैं। इसी प्रकार ५ स्थावरों की हिंसा के पाँचस्थानके भंग ३१ होते हैं। अथवा ६ काय जीवोंकी हिंसाके ६ स्थान है अत: ६ बार दो-दोका अङ्क लिखकर परस्पर गुणाकरनेसे (२४२४२४२४२४२) ६४ प्राप्त होते हैं। इसमेंसे १ कम करनेसे (६४-१) ६३ भंग संख्या प्राप्त हो जाती है। इसीप्रकार पाँचस्थावरोंकी हिंसाके पाँचस्थानके भंग ३१ होते हैं।
अथानन्तर प्रत्ययोंके उदयमें कार्यभूत जीवपरिणामोंमें ज्ञानावरणादिके अनुभागबन्धका कारणपना बताते हैं
पडिणीगमंतराए उवघादो तप्पदोसणिण्हवणे।'
आवरणदुर्ग भूयो बंधदि अच्चासणाएवि ॥८०० ।। __ अर्थ - प्रत्यनीक, अन्तराय, उपधात, तत्प्रदोष, निह्नव और अत्यन्त आसादना इन कार्योंसे जीव पुनः-पुनः ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मका बन्ध करता है।
१. "तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरावसादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः।” (तत्त्वा. सूत्र अ. ६ सूत्र १०) पं. सं. पृ. ५९३ भाथा १९ व पृ. १६७ गाथा २०४१)