Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६७२
अर्थ - आहारकजीवोंमें कार्मणकाययोगबिना शेष (५७ - १) ५६ बन्धप्रत्यय, अनाहारकजीवों में कार्मणकाययोगके बिना शेष १४ योगोंको कम करनेपर (५७-१४) ४३ बन्धप्रत्यय होते हैं। इसप्रकार श्रीजिनेन्द्र भगवान द्वारा मार्गणाओंमें उत्तरप्रत्ययोंका निर्देश किया गया है।
अथानन्तर प्रत्ययोंको विशेषतासे कहनेके लिए स्वयं नेमिचन्द्र आचार्य इस अधिकारके गाथासूत्र कहते हैं
अवरादीणं ठाणं ठाणपयारा पयारकूडा व । कूडुच्चारणभंगा पंचविहा होंति इगिसमये ॥ ७९१ ॥
अर्थ - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टस्थान, स्थानोंके प्रकार, कूटप्रकार, कूटोच्चारण और भङ्ग इसप्रकार एक समयमें प्रत्ययोंके पाँच प्रकार होते हैं।
आगे गुणस्थानों में प्रत्ययस्थानोंको कहते हैं
दस अट्ठारस दसयं सत्तर णव सोलसं च दोन्हं पि ।
अट्ठ य चोद्दस पणयं सत्त तिये दुति दुगेगमेगमदो ।।७९२ ॥
अर्थ - एक जीवके एककालमें होनेवाले प्रत्ययोंकी संख्याको स्थान कहते हैं। ये स्थान मिध्यादृष्टिआदि गुणस्थानों में क्रमसे इसप्रकार हैं- मिथ्यादृष्टिके जघन्यस्थान १० प्रत्ययका, मध्यमस्थान एक-एक प्रत्यय अधिक करके ११ से १७ प्रत्ययरूप उत्कृष्टके बीच के स्थान तथा १८ प्रत्ययका उत्कृष्टस्थान है । अर्थात् मिथ्यात्वगुणस्थानमें एक जीवके एक ही समय में ५७ प्रत्ययोंमेंसे जघन्यस्थानतो १० प्रत्ययरूप, मध्यमस्थान ११-१२-१३-१४-१५-१६ या १७ प्रत्थयोंका तथा उत्कृष्टस्थान १८ प्रत्ययका है। सासादनगुणस्थानमें जघन्यस्थान १० प्रत्ययरूप मध्यमस्थान इसीप्रकार एक-एक प्रत्यय अधिकरूप १६ प्रत्ययपर्यन्त एवं १७ प्रत्ययका स्थान उत्कृष्ट है। मिश्रगुणस्थानमें जघन्यस्थान ९ प्रत्ययका, मध्यमस्थान ९ से एक-एक प्रत्यय अधिक १५ प्रत्ययपर्यन्त और उत्कृष्टस्थान १६ प्रत्ययका है। ‘द्वयोरपि च' इस वचनसे असंयतगुणस्थानमें भी मिश्रगुणस्थानवत् ही कथन है। देशसंयतगुणस्थान में जघन्यस्थान आठ प्रत्ययका मध्यमस्थान एक-एक प्रत्यय अधिक १३ प्रत्ययपर्यन्त तथा उत्कृष्टस्थान १४ प्रत्ययका हैं। प्रमत्त-अप्रमत्त और अपूर्वकरण, इन तीनगुणस्थानोंमें प्रत्येकके जघन्यस्थान ५ प्रत्ययका, मध्यमस्थान ६ प्रत्ययका और उत्कृष्टस्थान ७ प्रत्ययका है। अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें जघन्यस्थान २
१.
गाथा ७९० के बाद मार्गणा ओम बन्धप्रत्थवोंका निरूपण करनेके लिए जो १७ गाधाएं कहीं गई हैं वे पञ्चसंग्रह ( प्राकृत) के शतक अधिकारकी ८४-१०० पर्यन्तकी गाथाएँ हैं। प्रकरणवश उन्हें यहाँ उद्धृत किया गया है। यह गाधा प्रा.पं.सं.पू. ११३ पर भी है।
२.