Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६७५ नोट – उपर्युक्त सन्दृष्टि में स्थान तो ५५ और उनके कूट प्रकार १२० बताये गये हैं। अब उपर्युक्त स्थानप्रकार को जाननके लिए कूटप्रकारों का कथन करते हैं
भयदुगरहियं पढम एक्कदरजुदं दुसहियमिदि तिण्हं।
सामण्णा तियकूड़ा मिच्छा अणहीणतिण्णिवि य ॥७९४ ॥ अर्थ - भय-जुगुप्सारहित प्रथम, भय-जुगुप्सामेंसे किसी एकसहित द्वितीय अथवा भयजुगुप्सासहित तृतीय इसप्रकार ३ कूट तो सामान्य हैं तथा अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाले मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धीकषायरहित ३ कूट और भी जानना।
विशेषार्थ - पाँच मिथ्यात्वमेंसे एक जीवके एक कालमें एक ही मिथ्यात्व होता है अतः नीचे पाँच मिथ्यात्व स्थापन करना इनक्री सहनानीरूपसे पाँचस्थानोंपर १-१ लिखना तथा उनके ऊपर पाँचइन्द्रिय एकमन इन छहों इन्द्रियोंमेंसे एक जीवके एककालमें एक ही विषयकी प्रवृत्ति होती है अत: इनकी सहनानी छहस्थानोंपर तिर्यगरूपसे एक-एक लिखना एवं ६ कायकी हिंसामें एक जोवके एक कालमें एक कायकी हिंसा होती है या दो कायकी हिंसा होती है अथवा तीन कायकी या चारकी अथवा पाँचकी या ६ कायकी हिंसा होती है अतः इनकी सहनानी एक-दो-तीन-चार-पाँच व छहके अङ्क क्रमसे तिर्यग्रूप ही लिखना। इनके ऊपर १६ कषायोंमें एक जीवके एक कालमें अनन्तानुबन्धी आदि चार क्रोधका, चार मानका, चार मायाका अथवा चार लोभमेंसे किन्हीं एक कषायके चार भेदोंका उदय पाया जाता है अत: इनको तिर्यगरूप से चारजगह चार-चारके अङ्क लिखना। इनके ऊपर तीन वेदोंमेंसे एक जीवके एक कालमें एक ही वेदका उदय होता है अत: तीन जगह एक-एकका अङ्क लिखना तथा इसके ऊपर हास्य-रति या अरति-शोकमेंसे एक जीवके किसी एकयुगलका उदय होता है अतः दो स्थानोंमें २ का अङ्क लिखना, इसके ऊपर १५ योगोंमेंसे आहारकद्विक (आहारक-आहारकमिश्न मिथ्यादृष्टि के नहीं होता है) बिना १३ योगोंमें एक जीवके एक कालमें एक ही योग होता है अत: १३ जगह एकका अङ्क लिखना, इसप्रकार तीनकूट करने चाहिये। इनमें प्रथम कूट भय-जुगुप्सा इन दोनोंसे रहित होनेसे सबसे ऊपर शून्य लिखना दूसराकूट भय-जुगुप्सा से किसी एकके उदयसहित है अत: सबसे ऊपर दो जगह एकका अङ्क लिखना, तृतीयकूट भय-जुगुप्सा इन दोनोंसे सहित हैं इसलिए सबसे ऊपर दोका अङ्क एक जगह लिखना। इसप्रकार ये तीनकूट बनाए सो ये तीनों कूट तो मूलकूट हैं तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाबाले मिथ्यादृष्टिके आवलीकालपर्यन्त अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता अत: तीनकूट अनन्तानुबन्धीरहित बनाना, अर्थात् जहाँ चार-चार कषायरूप ४ का अङ्क लिखा गया है उसके स्थानपर चार की जगह ३ का ही अङ्क लिखना, अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजना करनेवाला पर्याप्त ही है अतः अपर्याप्तसम्बन्धी औदारिकमिश्नवैक्रियिकमिश्न और कार्मणकाययोग नहीं होनेसे १३ योगोंके स्थानपर