Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ६५०
पाया जाता है अन्य उदयस्थानोंमें नहीं तथा २४ व २६ प्रकृतिक उदय होनेपर ९२ प्रकृतिक और ९० आदि प्रकृतिरूप चार ऐसे पाँच सत्त्वस्थान एवं ३० व ३१ प्रकृतिक उदय होनेपर सत्चस्थान २४ प्रकृतिक उदयस्थानमें कहे अनुसार ही जानना, किन्तु इतना विशेष है कि यहाँ ८२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं है और ३० प्रकृतिक उदयमें ९३ प्रकृतिक एक सत्त्वस्थान है । १ प्रकृतिक बन्धमें ३० प्रकृतिक उदय होनेपर ९३ आदि प्रकृतिक चार तथा ८० आदि प्रकृतिक चार ऐसे नामकर्मके ८ सत्त्वस्थान कहे गये हैं।
विशेषार्थ - - गाथा ७६२ में २८ प्रकृतिक बन्धमें ९२ व १० प्रकृतिका सत्व और २५ व २७ प्रकृतिका उदय बतलाते हुए यह कहा गया है कि २५ व २७ प्रकृतिका उदय और ९० प्रकृतिका सत्त्व वैक्रियिकशरीरकी अपेक्षा जानना चाहिए, आहारकशरीरकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि जिसके आहारकशरीर होगा उसके ९२ प्रकृतिका सत्व होगा, ९० प्रकृतिका सत्त्व सम्भव नहीं है । ९० प्रकृतिका सत्त्व तो आहारकशरीरके सत्व बिना होता है।
S
..
शा
२५ व २७ प्रकृतिका उदय देव नारकीके होता है अथवा आहारकशरीरवाले के हो सकता है, क्योंकि इनके संहननका उदय नहीं होता अथवा तीर्थङ्करकेवलीके कपाटसमुद्घातमें होता है। देव - नारकी २८ प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, क्योंकि २८ प्रकृतिका बन्धस्थान देव - नरकगतिसहित है। आहारकशरीरवालेके २८ प्रकृतिका बन्ध तो सम्भव है, किन्तु ९० प्रकृतिका सत्त्व सम्भव नहीं है। तीर्थ केवली के कपाटसमुद्घातमें न तो ९० प्रकृतिका सत्त्व होता है और न नामकर्मका बन्ध होता है, अतः ९० प्रकृतिक सत्त्वस्थान सहित २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें २५ व २७ प्रकृतिरूप उदयस्थान सम्भव नहीं है ?
-
समाधान उमास्वामी आचार्य विरचित तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में "औपपादिकं वैक्रियिकं" इस सूत्र द्वारा यह अवश्य कहा गया है कि वैक्रियिकशरीर उपपादजन्मवालोंके अर्थात् देवनारकियोंके होता है, किन्तु "लब्धिप्रत्ययं च " सूत्र द्वारा यह भी कहा गया है कि तप आदि लब्धिके कारण औदारिकशरीरियोंके भी वैक्रियिकशरीर हो जाता है। इसीलिए "तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः " इस सूत्र द्वारा यह कहा गया है कि एक जीवमें एक साथ चार शरीर हो सकते हैं। श्री वीरसेनस्वामिने वर्गणाखण्ड सूत्र १३१ की टीकामें चार शरीरवाले जीवोंका कथन करते हुए कहा है- " चत्तारि सरीराणि जेर्सि ते चदु सरीरा । के ते ? औरालिय-वेडव्विय-तेजा-कम्मइय सरीरेहिं ओरालिय- आहार - तेजा - कम्मड़य सरीरेहिं वा वट्टमाणा ।" (ध. पु. १४ पृ. २३८) अर्थात् चार शरीर जिनके होते हैं वे चार शरीरवाले जीव हैं। वे कौन हैं ? औदारिक वैक्रियिक- तैजस और कार्माणशरीर के साथ विद्यमानजीव चार शरीरवाले होते हैं (आगे ध. पु. १४ पृ. ४०२ पर कहा है) "ण चेदं विउव्वणसरीरं ओरालियं, विप्पडिसेहदो" "यह विक्रियारूप शरीर भी औदारिक है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विक्रियारूप शरीरके औदारिक होनेका निषेध है।" इसी वैक्रियिकशरीर