Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६६२
सलिलमापगामुखैरहरहरापूर्यते तथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा समापूर्यत इति मिथ्यादर्शनादिद्वारमास्रवः ।" (त. रा. वा. १ / १४ / १६) अर्थात् पुण्य-पापरूप कर्मोंके आगमनके द्वार को आस्रव कहते हैं। जैसे नदियोंके द्वारा समुद्र प्रतिदिन जलसे भरा जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मामें कर्म आते हैं। जैसे आसवके द्रव्यास्रव - भावास्रव तथा साम्परायिक व ईर्यापथ आस्रव, ऐसे भेद हैं वैसे प्रत्ययके भेद नहीं हैं। वह प्रत्यय मिथ्यात्वादिके भेदसे चारप्रकारका है। इसके उत्तरभेद क्रमसे मिथ्यात्व के एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञानरूप पाँच भेद हैं; अविरतिके ५ इन्द्रिय व मनको वश नहीं करना तथा पंचस्थावर व जसकायिक जीवोंकी रक्षा नहीं करना (दया नहीं पालना ) ऐसे ६+६= १२ भेद; कषायके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और सज्वलनरूप क्रोधमान- माया व लोभ ये १६ कषाय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय व जुगुप्सा, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद और पुरुषवेद ये ९ नोकषाय इसप्रकार २५ भेद; योगके ४ मनोयोग (सत्य-असत्य - उभय- अनुभयरूप), ४ वचनयोग (सत्य-असत्य - उभय- अनुभयरूप ), ७ काययोग (औदारिक-औदारिकमिश्र, वैक्रियकवैक्रियकमिश्र, आहारक आहारकमिश्र और कार्मणरूप) ऐसे ५+१२+२५+१५=५७ भेद प्रत्ययके
जानना ।
अथानन्तर मूलप्रत्ययों को गुणस्थानों में कहते हैं
चदुपच्चइगो बंधो पढमे णंतरतिगे तिपच्चइगो । मिस्सगबिदियं उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ।। ७८७ ॥
उवरिलपंचये पुण दुपच्चया जोगपच्चओ तियहं । सामण्णपच्चया खलु अट्ठण्हं होंति कम्माणं ॥ ७८८ ॥
अर्थ - मिथ्यात्वगुणस्थानमें चारों प्रत्ययोंसे बन्ध होता है अनन्तर सासादनमिश्र व असंयत इन तीनगुणस्थानों में मिथ्यात्वबिना तीनप्रत्ययोंसे बन्ध होता है, (देश अर्थात् किंचित् असंयम जहाँ है उसको दिशति - त्यागे ऐसे ) देशसंयतगुणस्थान में अढाई प्रत्यय हैं। (यहाँ विशेषता यह है कि अविरतिप्रत्यय विरतिसे मिश्रित हुआ है शेष दो प्रत्यय पूर्ण ), आगे प्रमत्तसे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानपर्यन्त पाँचगुणस्थानों में योग व कषायरूप दो ही प्रत्यय हैं तथा उपशान्तकषायसे सयोगीगुणस्थानपर्यन्त एक योगप्रत्यय ही है। इसप्रकार सामान्यसे आठकर्मो के प्रत्यय गुणस्थानोंमें जानने चाहिए ।
४. प्रा. पं. स. पू. १०५ गाधा ७८-७९ ।