Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५८० अपूर्वकरण | १ | ९ प्रकृतिक | ३ | ६-५ च ४ | ३३ । २८-२४ व २१ (उपशमक) अपूर्वाधार
: अलिफ । .. ६-५, ३ ४ | १ । २१ प्रकृतिक (क्षपक) अनिवृत्तिकरण | ५ ५-४-३-२ । २ ।
२८-२४ व २१ (उपशमक) व १ ।
प्रकृतिक अनिवृत्तिकरण | ५ ५ -४-३-२ | २ २ व १
२१-१३-१२. (क्षपक)
। प्रकृतिक
११-५-४-३-२
व ५ प्रकृतिक सूक्ष्मसाम्पराय
१ सूक्ष्म
२८-२४ व २१ (उपशमक)
लोभरूप सूक्ष्मसाम्पराय
१ सूक्ष्म- १ । प्रकृतिक (क्षपक)
लोभरूप उपशान्तकषाय
३ । २८-२४ व २१ नोट -- उपर्युक्त सन्दृष्टि में कथित बधस्थानोंके लिए गाथा ४६४, उदयस्थान के लिए ४७९ गाथा एवं सत्त्वस्थानके लिए mथा ५०८ से ५११ भी देखना चाहिए। अब मोहनीयकर्मके बन्ध-उदय-सत्त्वरूप त्रिसंयोगीभंगोंमें जो विशेषता है उसको कहते हैं
बंधपदे उदयंसा उदयट्ठाणेवि बंध सत्तं च ।
सत्ते बंधुदयपदं इगिअधिकरणे दुगाधेजं ॥६६०॥ अर्थ - बन्धस्थानमें उदय व सत्त्वस्थान हैं, उदयस्थानमें बन्धस्थान और सत्त्वस्थान तथा सत्त्वस्थानमें बन्ध और उदयस्थान होते हैं। इसप्रकार एक अधिकरण में दो आधेय हैं ऐसा जानना | अब सर्वप्रथम बन्धस्थानमें उदय व सत्त्वस्थानको कहते हैं
बावीसयादिबंधेसुदयंसा चदुतितिगिचऊपंच। तिसुइगि छद्दो अट्ट य एवं पंचेव तिट्ठाणे ॥६६१।। दसयचऊ पढमतियं णवतियमडवीसयं णवादिचऊ। अडचदुतिदुइगिवीसं अडचदु पुव्वं व सत्तं तु ॥६६२ ।।