Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५९२
अपेक्षा युगपत् २८-२७ व २६ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान हैं तथा ७ प्रकृतिरूप उदयस्थानमें २८ प्रकृतिक एक हैसत्त्वस्थान है २७ व ३६ प्रकृतिरूप स्थान नहीं है क्योंकि असंयतादि चारगुणस्थानों से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करके मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादृष्टि होकर वहाँ प्रथम समयमें २२ प्रकृतिका बन्ध किया तब अनन्तानुबन्धीका एकसमयप्रबद्ध बाँधा उसकी उदीरणा अचलावली कालपर्यन्त नहीं हो सकती है और अनन्तानुबन्धीके उदयरहित उस जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका वेदकसम्यक्त्वयोग्य (जिसका लक्षण गाथा ६१५ में दिया है) काल है, उपशमकाल नहीं है, क्योंकि उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना नहीं हुई है। पहले गाथा नं. ६१४-६१५ में वेदकसम्यक्त्वयोग्यकाल और उपशमसम्यक्त्वयोग्य काल का लक्षण तथा वेदकसम्यक्त्वयोग्यकालमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी सर्वउद्वेलनाका अभाव कह दिया है।
चारोंगतिसम्बन्धी सासादनगुणस्थानमें २१ प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे और नानाजीवकी अपेक्षा युगपत् १-८ व ७ प्रकृतिक तीन उदयस्थान हैं। इनमें २८ प्रकृतिरूप एक ही सत्त्वस्थान है २७ व २६ प्रकृतिक नहीं, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वसे गिरकर सासादनगुणस्थानमें आता है। इसका काल एकसमयसे छह आवलीपर्यन्त है और सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्धेलनाका अवसररूप जो उपशमकाल है वह यहाँ नहीं है तथा यहाँ २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन वेदकसम्यग्दृष्टि के ही होता है और वेदक सम्यग्दृष्टि सासाटन में आता नहीं है एवं अनन्तानुबन्धीके उदयबिना सःसादनगुणस्थान सम्भव नहीं है। चारोंगतिसम्बन्धी मिश्रगुणस्थानमें १७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है वहाँ एक जीवकी अपेक्षा क्रमसे और नानाजीवाकी अपेक्षा युगपत् ९८ व ७ प्रकृतिक तीन उदयस्थान हैं। यहाँ २८ व २४ प्रकृतिरूप दो ही सत्त्वस्थान हैं २३ व २२ प्रकृतिक नहीं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय होते हुए दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं होता है। चारोंगतिके असंयत्तगुणस्थानवी जीवोंमें मोहनीयकर्मकी १७ प्रकृतियोंका बन्ध है। यहाँ एकजीवकी अपेक्षा क्रमसे तथा नानाजीवकी अपेक्षा युगपत् ९-८-७ व ६ प्रकृतिक चार उदयस्थान हैं इनमें ९ प्रकृतिका उदय होते हुए बेदकसम्बन्दृष्टिफ्ना ही है। दर्शनमोहनीयकी क्षपणा प्रारम्भ होनेसे पूर्व २८ प्रकृतिक एवं अनन्तानुबन्धोकी विसंयोजना हो जानेपर २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान है, किन्तु क्षपणा करने वालेके पहले २४ प्रकृतिका तथा मिथ्यात्वका क्षय हो जानेपर २३ प्रकृतिका और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षय हो जानेपर २२ प्रकृति का सत्त्व होता है उस समयतक सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होनेसे ९ प्रकृतिका उदयस्थान होता है एवं क्षायिकसम्यग्दृष्टिक २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयाभाव हो जानेसे ९ प्रकृतिकस्थान सम्भव नहीं हैं। ८ व ७ प्रकृतिका उदय होनेपर प्रथमोपशमसम्बकत्वमें २८ प्रकृतिक एवं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमें २८ व २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान हैं। वेदकसम्यग्दृष्टिके ८ व ७ प्रकृतिका उदय होते हुए २८-२४-२३ व २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान एक जीबकी अपेक्षा क्रमसे तथा नानाजीवकी अपेक्षा युगपत् होता है। क्षायिकसम्यक्त्वमें २१ प्रकृतिक ही सत्त्वस्थान