Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५५०
निवृत्तिअपर्याप्तावस्थामें मनुष्ययुत २९ व मनुष्य-तीर्थकरयुत ३० प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है। इस प्रकार उपशमसम्यक्त्व २१ व ३१ प्रकृतिक बन्धस्थानरूप नामकर्मकी प्रकृतियों का जिसके सत्त्व पाया जाता है वह प्रमत्तगुणस्थानसे मिथ्यात्वगुगल्यानको प्राप्त नहीं होता है। तीर्थकर और आहार कतिक के सत्वसहित असंयतादिक तीनगुणस्थानाग अनन्तानुवन्धीका उदय नहीं हानेसे तीर्थंकरप्रकृतिकी सत्तावाला सासादनगुणस्थान में नहीं जाता और इसके सम्यग्मिध्यात्वन कृतिका भी उदय नहीं होनसे मिश्रगुणस्थान नहीं होता, क्योंकि एक जीवके तीर्थकर और आहारकदिकका सच होते हुए मिथ्यात्वगुणस्थान नहीं होता, आहारकद्विक का सत्त्व होत हुए, सासादनगुणस्थान नहीं होता और तीर्थंकरप्रकृतिका सत्त्व रहते हुए मिश्रगुणस्थान नहीं होता, ऐसा जानना । क्षायिकसम्यग्दृष्टि यथासम्भव २८-२९-३०-३१ और १ प्रकृतिरूप ५ स्थानोंको बाँधता है।
असंयतादि तीनगुणस्थानवी वेदक और कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि तो २८ और २९ प्रकृतिरूप दो स्थान तथा अप्रमत्तगुणस्थानवी २८-२९-३० व ३१ प्रकृतिरूप चार स्थानोंको बाँधते हैं। भोगभूमिज धेटक तथा कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि देवगतिसहित २८. प्रकृतिक स्थानको ही बाँधते हैं एवं कृतकत्यवेदकसम्यग्दृष्टि देव मनुष्यगतिसंयुक्त २९एवं मनुष्यगति-तीर्थकरसहित ३० प्रतिरूप दो स्थानोंका बन्ध करता है और प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि देव व देवपर्यायमें ही जिनके वेदकसम्यक्त्व हुआ है ऐसे देव मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिक स्थानका ही बन्ध करते हैं। नारकी और भवनत्रिकसे उपरिमगवेयकपर्यन्न सादिमिध्यादृष्टिजीव तीनकरणोंको किये बिना यथासम्भव सम्यक्त्वप्रकृति के उदयसे मिथ्यात्वको छोड़कर वेदकसम्यग्दृष्टि होकर मनुष्यगतियुत २९ प्रकृतिरूप स्थानका ही बा-ध करते हैं।
अडवीसतिय दुसाणे, मिस्से मिच्छे द किण्हलेस्सं वा।
सण्णीआहारिदरे, सव्वं तेवीसछक्कं तु॥५५१ ।। अर्थ- सासादनसम्यक्त्वमें २८ प्रकृतिरूप स्थानको आदि लेकर २८-२९ व ३० प्रकृतिक ३ बन्धस्थान हैं सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) में २८-२९ प्रकृतिक दो तथा मिथ्यात्वमें कृष्णलेश्यावत् आदिके २३-२५-२६-२८-२९ व ३० प्रकृतिक ग्रहम्थान हैं। सञीमार्गणामें और आहारमार्गणामें सर्वबन्धस्थान हैं, असञ्जी एवं अनाहारमार्गणा २३ प्रकृतिरूप स्थानको आदि लेकर छह बन्धस्थान है अर्थात् २३, २५, २६, २८, २९, ३० ये छह बन्धस्थान हैं।
विशेषार्थ- सासादनगुणस्थानमें निर्वृत्त्यपप्तिक - बादर - पृथ्वीकाय, अपकाय, प्रत्येकवनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय सैनी-असैनी तिर्थच व मनुष्य में, पर्यासनारकियोंमें
और पर्याप्त व अपर्याप्त भवनात्रि कादिसे सहस्रारस्वर्गपर्यन्त देवा २९-३० प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध होता है तथा पर्याप्तसञ्जीतिर्यञ्च और मनुष्यमें २८-२९-३० प्रकृतिरूप तोन स्थानोंका बन्ध होता है (यहाँ