Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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भग
संख्या
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ५७१
गुणस्थानकी अपेक्षा गोत्रकर्मके भंगसम्बन्धी सन्दृष्टि
४
D
२
२
१ १
अब आयुकर्मके भंग १३ गाथाओंसे कहते हैं
क्षीणकषाय
सयोगकेवली
अयोगकेवली
भंगों का कुल जोड़
»
१
सुरणिरया णरतिरियं छम्मासवसिगे सगाउस्स । रतिरिया सव्वाउं तिभागसेसम्मि उक्तस्सं ॥६३९ ॥
भोरामा देवाउं छम्पासवसि य बंधंति । इगिविगला पणरतिरियं तेदुगा सत्तगा तिरियं ॥ ६४० ॥ जुम्मं ॥
अर्थ - भुज्यमान आयुके अधिकसे अधिक छहमास अवशेष रहनेपर देव और नारकी मनुष्य अथवा तिर्यञ्चाका ही बन्ध करते हैं तथा मनुष्य तिर्यञ्च भुज्यमान आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर चारों आयुओंसे योग्यतानुसार किसी भी एक आयुका बंध करते हैं। भोगभूमिज जीव अपनी आयुका छहमास अवशेष रहनेपर देवाचुका ही बन्ध करते हैं, एकेन्द्रिय और विकलत्रयजीव मनुष्यायु और तिर्यञ्चासे किसी एकका बन्ध करते हैं, किन्तु तेजकाय वायुकायिक जीव और सप्तमपृथ्वीके नारकीजीव तिर्यञ्चायुका ही बन्ध करते हैं।
इसप्रकार आयुकर्मके बन्धका कथन करके उदय और सत्त्वका निरूपण करते हैं
सगसगगदीणमाउं उदेदि बन्धे उदिष्णगेण समं ।
दो सत्ता हु अबंधे एवं उदयागदं सत्तं ।। ६४१ ॥
अर्थ - नारकी आदि जीवोंके अपनी-अपनी गतिसम्बन्धी एक आयुका उदय एवं परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होते समय अथवा बन्ध हो जानेपर उदयागत आयुसहित ( बध्यमान और भुज्यमानरूप) दोका सत्त्व, किन्तु जबतक परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध न हो तबतक एक भुज्यमान आयुकी ही सत्ता रहती है, ऐसा जानना |
एक्के एवं आऊ एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे ।
अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ ।।६४२ ।।