Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ५०९
विशेषार्थ - धर्मादि तीन नरकवाले नारकी असंयत सम्यग्दृष्टि होकर मनुष्यगतिसंयुक्त २९ तथा मनुष्यगति व तीर्थंकरयुत ३० प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं। अवशेष पृथ्वियोंके नारकीजीव मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिक स्थानको ही बाँधते हैं।
शंका- "अविरदादि चत्तारि तित्थयरबन्धपारम्भया णरा केवलिदुगंते" इत्यादि गाथा ९३ के अनुसार अविरतादि चारगुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली - श्रुतकेनलीके निकट तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ करते हैं तो फिर नरकमें तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध किसप्रकार है ?
समाधान- जिन्होंने पहले नरकायुका बन्ध किया है, ऐसे मनुष्य प्रथमोपशम अथवा वेदक या क्षायिकसम्यक्त्वमें तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ करते हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि मरणसमय में मिथ्यादृष्टि होकर तृतीय पृथ्वीपर्यन्त उत्पन्न होते हैं वहाँ पर्याप्तिपूर्ण होनेके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके समयबद्धतार्थंकर प्रकृतिका भी बन्ध करते हैं।
प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि असंयत व देशसंयतगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च तो देवगतिसहित २८ प्रकृतिक स्थान का ही बन्ध करते हैं तथा प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिमनुष्य जो असंयत- देशसंयत या प्रमत्तगुणस्थानवर्ती हैं वे देवगतिसंयुक्त २८ एवं देव व तीर्थंकरसहित २९ प्रकृतिका, किन्तु अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती, देव और आहारकद्विकसहित ३०, देव तीर्थंकर व आहारकद्विकसहित ३१ प्रकृतिक इसप्रकार चारस्थानों का बन्ध करते हैं। देवगति में प्रथमोपशमसम्यक्त्व उपरिमग्रैवेयकपर्यन्त ही है अतः मनुष्यगतिसहित २९ प्रकृतिरूप स्थानका ही बन्ध करते हैं, तीर्थंकरसहित ३० प्रकृतिक स्थानको नहीं बाँधते हैं क्योंकि देवायुके बन्धसहित तीर्थंकरका बन्ध करनेवालोंके सम्यक्त्वसे प्रच्युति नहीं होती और सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती है तथा वेदक सम्यक्त्वी अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती ही तीनकरण परिणामोंसे सातप्रकृतिका उपशमकरके द्वितीयोपशमसम्यक्त्व ग्रहण करता है इस सम्यक्त्वका काल अन्तर्मुहूर्त है, अन्तर्मुहूर्त के प्रथमसमयमें देवगतिसहित २८-२९-३०३१ प्रकृतिरूप चारस्थानोंको बाँधते हैं। अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमभागके प्रथमसमयसे छठे भाग पर्यन्त २८ २९ ३० और ३१ प्रकृतिरूप चार बन्धस्थानों को बाँधता हुआ सप्तमभाग से सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानपर्यन्त एक-एक प्रकृतिस्थानका ही बन्ध करता है तथा उपशान्तकषायगुणस्थानके अन्तसमयपर्यन्त नामकर्मको नहीं बाँधता है । उपशान्तकषायगुणस्थानसे अनुक्रमसे उतरते हुए, असंयतगुणस्थानवर्ती होकर प्रमत्तगुणस्थानवत् २८ व २९ प्रकृतिरूप दो स्थानोंका बन्ध करता है। इसप्रकार द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमें आठगुणस्थान हैं।' देवायुके बन्धसहित श्रेणी चढ़ते हुए अपूर्वकरणके प्रथमभागविना अन्यभागोंमें और उतरते हुए सर्वत्र यदि भरण हो जावे तो वैमानिकदेवोंमें यथासम्भव
१. किन्तु धवलाकार आदि के मत से उपशमश्रेणी चढ़ने वाले के चतुर्थ गुणस्थान में भी द्वितीयोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न हो
जाता है । (ध. पु. १ पृ. २११ )