Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ५३६
णामधुवोदयबारस गइजाईणं च तसतिजुम्माणं । सुभगादेज्जजसाणं जुम्मेक्कं विग्गहे वाणू ॥५८८ ॥
अर्थ - "तेजदुगं वण्णचऊ" इत्यादि ४०३ गाथामें कथित नामकर्मकी तैजसकार्मण, वर्णादिचार, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, अगुरुलघु और निर्माण ये ध्रुवोदयीप्रकृतियाँ हैं अर्थात् इनका उदय सबके निरन्तर पाया जाता है। तथा चारगति, पाँचजाति, त्रस - स्थावर, बादर- सूक्ष्म, पर्याप्तअपर्याप्त, सुभग- दुर्भग, आदेय अनादेय, यशस्कीर्ति अयशस्कीर्ति और चार आनुपूर्वी इन सर्वप्रकृतियों में से किसी एकप्रकृतिका उदय होनेसे ये ९ तथा उपर्युक्त ध्रुवोदयी १२ इसप्रकार (९+१२) सर्व २१ प्रकृतिरूप अस्थाका बंद विग्रहति ही होता है, क्योंकि इनमें आनुपूर्वी भी कही है। ऋजुगतिवालोंके २१ प्रकृतिकस्थानका उदय नहीं है, उनके तो २४ आदि प्रकृतिक स्थानोंका ही उदय है ।
मिस्सम्मितिअंगाणं संठाणाणं च एगदरगं तु ।
पत्तयेदुगाणेक्को उवघादो होदि उदयगदो ।।५८९ ।।
अर्थ - उपर्युक्त २१ प्रकृतिरूप उदयस्थानमेंसे आनुपूर्वीके घटानेसे तथा औदारिकादि तीनशरीरोंमें से एक, छहसंस्थानोंमेंसे एक, प्रत्येक साधारणशरीरमेंसे एक और उपघात ये चारप्रकृति मिलानेसे २४ प्रकृतिकस्थान होता है। इस स्थानका मिश्रशरीर के कालमें सभी स्थावरजीवोंके उदय होता हैं, किन्तु तीनों शरीरों में से एक औदारिकशरीरका तथा छह संस्थानोंमेंसे एक हुण्डक संस्थानका ही उदय होता है।
तसमिस्से ताणि पुणो अंगोवंगाणमेगदरगं तु । छहं संहडणाणं एगदरोउदयगो होदि ॥ ५९० ॥
परघादमंगपुणे आदावदुगं विहायमविरुद्धे ।
सासवची तप्पुण्णे कमेण तित्थं च केवलिणि ॥५९९ || जुम्मं ॥
अर्थ - उपर्युक्त चारप्रकृतियाँ और तीन अङ्गोपाङ्गमें एक, छहसंहननों में एक इसप्रकार सर्व ६ प्रकृतियाँ मिश्रशरीरवाले सजीवके उदययोग्य हैं किन्तु संहनन मनुष्य व तिर्यञ्चोंके ही उदय योग्य हैं। परघातप्रकृति त्रस - स्थावरोंके शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेपर ही उदययोग्य हैं। स्थावरजीवके पर्याप्तकालमें आतप उद्योत तथा सके पर्याप्तकालमें उद्योत और विहायोगतियुगल ही उदययोग्य होती हैं किन्तु उद्योत तिर्यञ्चोंके ही उदययोग्य है। उच्छ्वासप्रकृति और स्वरयुगल अपनी-अपनी पर्याप्तिकालमें ही उदययोग्य हैं तथा तीर्थङ्करप्रकृति केवलीके ही उदयमें आती है।