Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५५७
विशेषार्थ – अयोगकेवलीके चरमसमयमें नामकर्मके १० प्रकृतिक सत्त्वस्थान कहे हैं, वे १० प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- मनुष्यगति मनुष्याल्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, अस, बादर, सुभग, पर्याप्त, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थंकर इन दस प्रकृतियोंमेंसे मनुष्यगत्यानुपूर्वीके अतिरिक्त शेष ९ प्रकृतियाँ उदयरूप हैं जैसे गाथा ५९८ में कहा गया है, उसके अनुसार मनुष्यगत्यानुपूर्वीका उदय अयोगकेवलीके नहीं है, क्योंकि यह क्षेत्रविपाकी प्रकृति है और इसका उदय विग्रहगतिमें ही सम्भव है। जो अनुदय प्रकृति होती है वह एक समय पूर्व स्तुविकसंक्रमणसे अन्यप्रकृतिरूप संक्रमण कर जाती है अत: अनुदयरूप ७२ प्रकृतियोंके साथ मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी भी सत्त्वव्युच्छित्ति अयोगकेवलीके द्विचरमसमयमें हो जाना चाहिये जैसा कि ध.पु. ६ पृ. ४१७ और ध. पु. १० पृ. ३२६ एवं भगवती आराधना गा. २११७. २११८, २१२० व २१२१ में कहा है
सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिम झाणेण।
अणुदिण्णाओ दुचरिमसमए सव्वाउ पयडीओ ॥२१२० ॥ भगवती आराधना || अथवा इस सम्बन्धमें आचार्योंके दो मत हैं, श्रुतकेवलीके अभावके कारण यह नहीं कहा जा सकता कि कौनसा कथन ठीक है अत: दोनों कथनोंका संग्रह कर देना उचित है।
नामकर्मसम्बन्धी १३ सत्त्वस्थानोंकी सन्दृष्टि| सत्त्वस्थान
विवरण नामकर्मकी सभी प्रकृतियाँ हैं। ९३-१ तीर्थकर प्रकृति। ९३-२ आहारकद्विक। ९३-३ आहारकद्विक और तीर्थङ्कर | ९३-५ तीर्थङ्कर, आहारकद्विक और देवद्विक (उद्वेलना होनेपर) ८८-४ नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकशरीर,
वैक्रियाअगोपांग ८४-२ मनुष्यद्विककी (उद्वेलना होनेपर) ९३-५३ नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, विकलत्रय उद्योत, आतप,
एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावरका क्षय अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें होता है।'
क्रमांक
१. प्रा.पं. स. पृ.३८७ गाथा २१४ ।