Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५६७ अब उत्तरप्रकृतियोंमें बन्ध-उदय-सत्त्वरूप त्रिसंयोगी भङ्ग कहते हैं
बन्धोदयकम्मंसा णाणावरणंतरायिए पंच !
बन्धोवरमे वि तहा उदयंसा होंति पंचेव ॥६३०॥ अर्थ – ज्ञानावरण और अन्तरायकर्म की पाँच-पाँच प्रकृतिरूप बन्ध-उदय-सत्त्व सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानपर्यन्त होता है तथा बन्धका अभाव होनेपर भी उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानमें उदय व सत्त्वरूप पाँच-पाँच प्रकृतियाँ हैं। यहाँ अंश सत्त्वका पर्यायवाची जानना। अर्थात् अंश शब्दसे सत्त्व ग्रहण करना चाहिए। ज्ञानावरण-अन्तरायकर्मकी उत्तरप्रकृतिके बन्ध-उदय-सत्त्वकी गुणस्थानापेक्षा सन्दृष्टि
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
असंथत
देशसयत
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अपूर्वकरण
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कषाय
- | अनिवृत्ति.
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बन्ध 1 गुणस्थान
क्षीणकषाय
-
उदय
|
बिदियावरणे णवबंधगेसु चदुपंचउदय णवसत्ता । छब्बंधगेसु एवं तह चदुबंधे छडंसा य ॥६३१ ।। उवरदबंधे चदुपंचउदय णव छच्च सत्त चदु जुगलं।
तदियं गोदं आउं विभज मोहं परं वोच्छं ॥६३२ ॥जुम्मं ।। अर्थ- दर्शनावरणकर्मकी ९ प्रकृतियोंको बाँधनेवाले मिथ्यात्व और सासादनगुणस्थानमें उदय पाँचका अथवा ४ का और सत्त्व ९ प्रकृतिका होता है। इसीप्रकार ६ प्रकृतिका जिनके बन्ध पाया जाता है ऐसे मिश्रसे दोनोंश्रेणिवाले अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथमभागपर्यन्त उदय ४ का व पाँचका और सत्त्व
१. यह गाथा प्रा.पं.सं. पृ. २९९ गाधा ८ है।
२. प्रा.पं.स.पू. ३००-३०२ गाथा १०-१४ भी देखो।