Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ५५६
प्रकृतियों को कम करनेसे ७८ प्रकृतिक एवं ९० प्रकृतिमेंसे ये ही १३ प्रकृतियाँ घटानेसे ७७ प्रकृतिक स्थान होता है। अयोगकेवलीके १० और १ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है, इसप्रकार नामकर्मके सत्त्वस्थान
जानना ।
विशेष - यहाँ जो ९१ और ९० प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान कहे गये हैं वे आहारकद्विककी उद्वेलनाके पश्चात् बनते हैं, क्योंकि असंयत भी आहारकद्विककी उद्वेलना करता है।
आगे अयोगकेवली गुणस्थानमें १० व ९ प्रकृतिक सत्त्वस्थानोंकी प्रकृतियोंको कहते
गयजोगस्स दु तेरे तदियागगोदइदि विहीणेसु ।
दस णामस्स य सत्ता णव चेव य तित्थहीणेसु ॥ ६११ ॥
अर्थ - अयोगकेवलीके “उदयगवारणराणू" इत्यादि गाथामें कही हुई १३ सत्त्वप्रकृतियोंमेंसे वेदनीय, मनुष्यायु और उच्चगोत्र ये तीन प्रकृतियाँ घटानेपर नामकर्मकी १० प्रकृतियोंका सत्त्व है तथा इनमेंसे भी तीर्थंकरप्रकृतिको घटानेपर १ प्रकृतिका सत्त्व है । '
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वैक्रियिकशरीर बंधन इन छह प्रकृतियों को ८८ प्रकृति स्थान में घटाने से ८२ का सत्त्वस्थान होता है किंतु छह को न कम करके ४ को कम करके ८४ का सत्त्वस्थान बतलाया है। यह भी विचारणीय है।
इन सब पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि आहारकशरीरद्विक की उद्वेलना हो जाने पर भी आहारकशरीरसंघात बन्धन इन दो प्रकृतियों की उद्वेलना नहीं होती है। इसीप्रकार वैक्रियिकशरीरद्विक की उद्वेलना हो जाने पर भी वैक्रियिकशरीरसंघात व वैक्रियिकशरीरबंधन की उद्वेलना नहीं होती है । ९१, ९०, ८८, ८४, ८२ इन सत्त्वस्थानों का उद्वेलना की अपेक्षा से कथन है । ९३ व ९२ के सत्त्व वाले जीव जब आहारकद्विक की उद्वेलना कर देते हैं तब उनके क्रमशः ९१ व ९० का सत्त्वस्थान होता है। यदि यह कहा जाब क्रि सम्यग्दृष्टि के आहारकशरीर की उद्वेलना नहीं होती इसलिये ९३ के सत्त्वस्थान वाले जीव के आहारकशरीर की उद्वेलना नहीं हो सकती, क्योंकि तीर्थकरप्रकृति का सत्त्व होने से वह एक अंतर्मुहूर्त से अधिक मिध्यात्व में नहीं रह सकता है ? ऐसा कहना सर्वथा ठीक नहीं है, क्योंकि संयम से च्युत होकर जब वह असंयम को प्राप्त हो जाता है, उसके आहारकशरीरद्विक की उद्वेलना प्रारम्भ हो जाती है। कहा भी है
"असंजम गदो आधारकसरीरसंतकम्पियो- संजदो अंतोमुहुत्तेण उच्वेल्लणमाढवेदि जाव असंजदो जाव असंतकम्मं च अत्थिताव उव्वेल्लेदि ।" (धवल पु. ९६ पृ. ४१८)
अर्थ - आहारकशरीर-सत्कर्मिक संयत असंयम को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त में उद्वेलना प्रारम्भ करता है, जब तक वह असंयत है और जब तक वह सत्कर्म से रहित होता है, तब तक वह उद्वेलन करता रहता है।
इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर की उद्वेलना हो जाने पर भी वैक्रियिकसंघात व बंधन इन दो प्रकृतियों की उद्वेलना नहीं होती
है।
नामकर्म के इन सत्त्वस्थानों में नित्यनिगोदिया जीव के सत्त्वस्थानों की विवक्षा नहीं है, क्योंकि जिसने वैक्रियिकशरीरचतुष्क व आहारकशरीरचतुष्क का कभी बंध हीं नहीं किया उसके सत्त्वस्थान भिन्न प्रकार के होंगे।
१. प्रा. पं.सं. पू. ३८५-३८७ गाथा २०९-२१४ ।
२. प्रा. पं.सं. .पू. ३८७-३८८ गाथा २१५-२१६ ।