Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५५४
अथ नामकर्मसत्त्वस्थान प्रकरण आगे नामकर्मके सत्त्वस्थानोंका कथन १९ गाथाओंमें करते हैं
तिदुइगिणउदी णउदी अडचउदोअहियसीदि सीदी य। ___ऊणासीदत्तरि सत्तत्तरि दस य णव सत्ता॥६०९ ॥
अर्थ – ९३-९२-९१-९०-८८-८४-८२-८०-७९-७८-७७-१० और ९ प्रकृतिरूप नामकर्मके १३ सत्त्वस्थान हैं। उपर्युक्त सत्त्वस्थान किसप्रकार बनते हैं सो कहते हैं
सव्वं तित्थाहारुभऊणं सुरणिरयणरदुचारिदुगे।
उज्वेल्लिदे हदे चउ तेरे जोगिस्स दसणवयं ।।६१०।। अर्थ - नामकर्मकी सर्व ९३ प्रकृतिरूप प्रथमसत्त्वस्थान है उनमेंसे तीर्थङ्करप्रकृति कम करनेपर ९२ प्रकृतिक स्थान होता है, आहारकद्विकप्रकृति घटानेसे ९१ प्रकृतिक, आहारकद्विक-तीर्थङ्कर ये तीन प्रकृतियाँ कम करनेसे ९० प्रकृतिकस्थान होता है। इन्हीं ९० प्रकृतियोंमेंसे उद्वेलनारूप देवगति
१. प्रा.पं.सं.पृ.३८५ गा.२०८ ।
२. शंका - नामकर्म के सत्त्व स्थानों में एक स्थान आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग के सत्त्व से रहित ही है। वहाँ आहारक बंधन और आहारक संघात के सत्व का अभाव क्यों नहीं बतलाया ? जिस जीव ने आहारक शरीर का बंध नहीं किया उसके आहारक बंधन और आहारकसंघात पाया जा सकता है क्या ? यदि पाये जाते हैं तो कैसे? ।
समाधान - नामकर्म की ९३ प्रकृतियाँ हैं। उनमें से पाँचबन्धन और पाँचसंघात और स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण की १६ प्रकृतियाँ कुल २६ प्रकृत्तियाँ बन्धके अयोग्य हैं। ६७ प्रकृति बन्धयोग्य हैं। कहा भी है
वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्पमिच्छत्तं ।
होति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं ॥६॥ (पंचसंग्रह ज्ञानपीठ पृ. ४८) अर्थ- चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन, पांच संघात, ये इस प्रकार २६ नामकर्म की ओर २ मोहनीयकर्म की कुल २८ प्रकृतियाँ बंध के अयोग्य हैं।
देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया।
वण्ण चउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बंधुदये ||३४ ।। (गो.क.) अर्थ- शरीर नामकर्म के साथ बंधन और संघात अविनाभावी हैं। इस कारण पाँच बंधन और पाँच संघात ये दश प्रकृतियाँ बंध और उदय अवस्था में अभेद विवक्षा में जुदी नहीं गिनी जाती,शरीर नामप्रकृति में ही गर्भित हो जाती हैं। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण इन चारों में इनके २० भेद शामिल हो जाते हैं। इस कारण अभेद की अपेक्षा से बंध व उदय अवस्था में इनके २० भेद की बजाय ४ भेद गिने जाते हैं।