Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५१९
अन्तर्मुहूर्तमें मरण करनेवाला जीव देवोंमें उत्पन्न होता है। द्वितीयभागके अन्तर्मुहूर्तमें मरनेवाला देवोंमें या मनुष्योंमें, तृतीयभागके अन्तर्मुहूर्तमें मरणकर देव, मनुध्य या तिर्यञ्चोंमें तथा चतुर्थभागके अन्तर्मुहूर्तमें मरणको प्राप्त जीव देव-मनुष्यतिर्यञ्च या नरकोंमेंसे किसी एकस्थानमें जन्म लेता है।
विशेषार्थ-- बावीसाए विहत्तीओ को होदि? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे।' (चूर्णिसूत्र) जइवसहाइरियस्स बे उवएसा। तत्थ कदकरणिज्जो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिदूण एवं सुतं कदं, तेण मणुस्सा चेव बावीसविहत्तिया त्ति सिद्धं कदकरणिजो मरदि त्ति उवएसो जइवसहाइरियस्स अस्थि त्ति कथं णव्वदे? 'पढमसमयकदकरणिजो जदि मरवि णियमा देवेसु उववजदि। जदि णेरइएसु तिरिक्खेसु
मणुस्सेसु वा उववजदि तो णियमा अंतोमुहुत्तकदकरणिजो' त्ति '... मानवसहाइलिश पर विदागितादो। : .....
अर्थ- यतिवृषभाचार्यके दो उपदेश हैं। उनमें से कृतकृत्यवेदीजीव मरण नहीं करता है इस उपदेशका आश्रय लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिए मनुष्य ही बाईसप्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं यह बात सिद्ध होती है।
शङ्का- कृतकृत्यवेदी जीव मरता है यह उपदेश यतिवृषभाचार्यका है यह कैसे जाना जाता है?
समाधान- 'कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथमसमयमें मरण करता है तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है, किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी, तिर्यञ्च और मनुष्योंमें उत्पन्न होता है वह नियमसे अन्तर्मुहूर्तकालतक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है' इसप्रकार यतिवृषभाचार्यके द्वारा कहे गए चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। अब नामकर्मके बन्धस्थानोंको कहते हैं
तिविहो दु ठाणबंधो भुजगारप्पदरट्ठिदो पढमो।
अप्पं बंधतो बहुबंधे बिदियो दु विवरीयो ।।५६३॥ तदियो सणामसिद्धो सब्वे अविरुद्धठाणबंधभवा।
ताणुप्पत्तिं कमसो भंगेण समं तु वोच्छामि ॥५६४ । जुम्मं ।। अर्थ- नामकर्मके बन्धस्थान तीनप्रकारके हैं. तद्यथा- भुजकार, अल्पतर और अवस्थित। पूर्वमें अल्पप्रकृतियोंका बन्ध करता था पश्चात् अधिक प्रकृतियोंको बाँधने लगे तो यह भुजकारबन्ध
१. जयधवल पु. २ पृ. २१३।
२. जयधवल पु.२ पृ. २५५ ।