Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ५२१
इसप्रकार नामकर्मके (४+५+४+३+३+२+१) २२ भुजकारबन्धस्थान होते हैं।
विशेषार्थ - अब पूर्व में जो बादरपृथ्वीकायादि ४१ पद कहे थे उनमें भङ्गसहित स्थानोंका कथन करते हैं- अपर्याप्तपृथ्वी - अप्-तेज- वायु और साधारणवनस्पतिकायके सूक्ष्म- बादर तथा प्रत्येकवनस्पति इसप्रकार अपर्याप्त एकेन्द्रियके ११ भेदोंसहित २३ प्रकृतिका बन्ध करनेवालोंके स्थान ११ प्रकार हैं। यहाँ भंग एक-एक ही हैं अत: इन ११ स्थानोंके ११ भंग हैं । २५ प्रकृतिकके बन्धमें बादरपर्याप्त पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकार्य, वायुकाय और प्रत्येक वनस्पतिकायरूप पाँच भेदीसहित बंध करनेवाले स्थिर - शुभ और यशस्कीर्तियुगलोंकी प्रकृतियोंकी चालना (परिवर्तन) से आठ-आठ भंग पाए जाते हैं अतः सर्वभंग ४० हुए। पर्याप्तबादर-साधारण और सूक्ष्मपर्याप्त पृथ्वी - अप्-तेज-वायु तथा साधारणवनस्पतिकायरूप छह भेदसहित स्थिर व शुभयुगलों की प्रकृतियोंकी चालनासे चार-चार भनोंकी अपेक्षा २४ भङ्ग तथा अपर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय- असञ्ज्ञी सञ्ज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च व मनुष्य इन छह अपर्याप्तरूप भेदोंमें मात्र अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होनेसे ६ भंग हुए। इसप्रकार २५ प्रकृतिरूप बन्धस्थानके (४०+२४+६) सर्वभंग ७० हुए। २६ प्रकृतिकै स्थानमें बादरपृथ्वीकायसहित आतप और उद्योतयुक्त दो स्थान एवं अपकाय और वनस्पतिकायसहित उद्योतयुक्त दो स्थान ऐसे चारस्थानोंमें स्थिर - शुभ और यशस्कीर्तियुगलकी चालना से आठ-आठभंग की अपेक्षा (८×४) ३२ भंग हैं।
देवगतिसहित २८ प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें स्थिरादि पूर्वोक्त तीनयुगलोंसे आठ-भंग और नरकगतिसहित इसी स्थान में अप्रशस्तप्रकृतियोंके ही बन्धकी अपेक्षासे एकभंग इसप्रकार २८ प्रकृतिके स्थानमें ९ भंग होते हैं । २९ प्रकृतिके स्थानमें पर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय एवं पञ्चेन्द्रियरूप चार भेदोंसे सहित पूर्वोक्त स्थिरादि तीनयुगलकी अपेक्षा आठ-आठ भंग होनेसे ३२ भंग तथा तिर्यञ्च व मनुष्यगतिसहितस्थानोंमें ६ संस्थान, ६ संहनन व स्थिरसे विहायोगतिपर्यन्त सातयुगलोंकी प्रकृतियोंकी चालना (परिवर्तन) से ४६०८+४६०८=९२१६ भङ्ग हुए । इसप्रकार ९२९६ में पूर्वोक्त ३२ भङ्ग मिलानेसे २९ प्रकृतिक स्थानमें सर्वभव ( ९२१६ + ३२ = ) ९२४८ हैं । ३० प्रकृतिकके स्थानमें उद्योतसहित पर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-संयुक्त भेदों में स्थिर, शुभ और यशस्कीर्तिरूप तीनयुगलोंकी चालनासे आठ-आठ भङ्गकी विवक्षा है अतः ८०४ = ३२ भङ्ग एवं उद्योतयुत सञ्ज्ञी तिर्यञ्चरूप एकस्थानमें ६ संस्थान, ६ संहनन और पूर्वोक्त स्थिरसे विहायोगतिपर्यन्त सातयुगलों की अपेक्षा ४६०८ भङ्ग हैं। इसप्रकार ३० प्रकृतिरूप स्थानमें ३२+४६०८ = ४६४० सर्वभङ्ग जानना । ये सर्वभङ्ग मिथ्यात्वगुणस्थानसम्बन्धी है। अब उपर्युक्त भङ्गसम्बन्धी भुजकारादि बन्धोंको नानाकालकी अपेक्षा कहते हैं
पूर्वमें २३ प्रकृतिक स्थानको बाँधता था, पश्चात् २५ - २८ आदि प्रकृतिको बाँधने लगा यही भुजकार बन्ध है । यहाँ बादरपृथ्वीकायसहित २३ प्रकृतिरूप स्थानके एक भङ्गको बाँधता था पश्चात् २५