Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५०८ प्रकृतिरूप हैं। सासादनगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च व मनुष्यगतियुक्त २९ प्रकृतिरूप और तिर्यञ्च-उद्योतसहित ३० प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करते हैं। मनुष्य व तिर्यग्लोकसम्बन्धी कर्मभूमिज तिर्यञ्च, नागा, संन्यासी आदि एवं द्रव्यजिनलिङ्गी आदि मिथ्यादृष्टि तेजोलेश्यासे सौधर्मयुगलमें उत्पन्न होते हैं ये निवृत्त्यपर्याप्तावस्थामें २५-२६-२९ और ३० प्रकृतिक स्थानको बाँधते हैं तथा देवायुका जिनके बन्ध हुआ है ऐसे असंयत व देशसंयतगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च तो प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी और प्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त मनुष्य प्रथमोपशम एवं द्वितीयोपशमसम्यक्त्व की विराधना करके तेजोलेश्यासे सहित सौधर्मस्वर्गयुगलमें सासादनगुणस्थानवर्ती होते हैं। इनके निर्वृत्त्यपर्याप्तावस्थामें मनुष्यगतिसहित २१ प्रकृतिक तथा तिर्यञ्चगति और उद्योतसहित ३० प्रकृतिरूप इन दो स्थानोंका बन्ध होता है। वेदक-क्षायिकसम्यग्दृष्टि सर्वभोगभूमिज और असंयत-देशसंयतगुणस्थानवर्ती-कर्मभूमिज-वेदकसम्यग्दृष्टितिर्यञ्च, तीर्थङ्करप्रकृतिके सत्त्वसहित अथवा उससे रहित अप्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त देवायुके बन्धसे संयुक्त मनुष्य सोधर्मस्वर्गयुगलमें तेजोलेश्यासहित उत्पन्न होते हैं। ये जीव असयतगुणस्थानकी निवृत्त्यपर्याप्तावस्थामें तीर्थङ्करप्रकृतिके सत्त्वसहित मनुष्यगतिसंयुक्त ३० प्रकृतिक स्थानका एवं तीर्थक्करप्रकृतिके सत्त्वरहित मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिरूप स्थानका बंध करते हैं। पद्म-शुक्ललेश्यासहित असंयतभोगभूमिज, पद्य-शुक्ललेश्यावाले असंयतादि कर्मभूमिज और शुक्ललेश्यावाले अपूर्वकरणादिगुणस्थानवर्ती मरणकालमें तेजोलेश्याको प्राप्त करके ही सौधर्मस्वर्गयुगलमें उत्पन्न होते हैं तथा सनत्कुमारस्वर्गयुगलमें चक्रइन्द्रकसे श्रेणीबद्धपर्यन्त विमानोंमें तेजोलेश्या है, किन्तु यहाँपर भोगभूमिजबिना शेष जीवोंकी उत्पत्ति है। इनके निर्वृत्त्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि व सासादनगुणस्थानवर्ती तो तिर्यञ्चमनुष्यगतिसहित २९, तिर्यञ्चति-उद्योतसहित ३० प्रकृतिरूप स्थानोंका बन्ध करते हैं और असंयत्तगुणस्थानवी मनुष्यगतिसहित २९ प्रकृतिका एवं मनुष्यतीर्थंकरसहित ३० प्रकृतिका बन्ध करते हैं। आगे आठ स्वर्गों में देवायुके बन्धसहित कर्मभूमिज मनुष्यतिर्यञ्च पद्मलेश्यासहित उत्पन्न होते हैं सो ये मिथ्यात्व-सासादनगुणस्थानवर्ती तो तिर्यञ्चमनुष्यगतिसहित दो स्थान और असंयतगुणस्थानवाला मनुष्य-तीर्थंकर सहित और तीर्थंकर रहित ऐसे दो स्थानोंको बाँधते हैं। आमतादि चार स्वर्गवासीदेवोंमें एवं नवग्रैवेयकमें शुक्ललेश्या है, ये मिथ्यात्व
और सासादनगुणस्थानमें मनुष्यगतिसहित २९ तथा आनतादि चारस्वर्गोंके असंयतदेव एवं अनुदिशअनुत्तरविमानवाले असंयतदेव मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिरूप या मनुष्य-तीर्थङ्करसहित ३० प्रकृतिरूप स्थानको बाँधते हैं।
भव्वे सव्वमभव्वे, किण्हं वा उवसमम्मि खइए य ।
सुक्कं वा पम्मं वा, वेदगसम्मत्तठाणाणि ।।५५० ।। अर्थ- भव्यमार्गणा भव्योंके सर्व, अभव्यके कृष्णलेश्यावत् आदिके छह, सम्यक्त्वमार्गणामें उपशम व क्षायिकसम्यग्दृष्टिके शुक्ललेश्यावत् २८-२९-३०-३१ व १ ये ५ तथा वेदकसम्यक्त्व में पद्म लेश्या के समान २८-२९-३० और ३१ प्रकृतिरूप ४ बन्धस्थान हैं।