Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५०२
अर्थ- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें अन्तिम एक ही स्थान है। देशसंयतगुणस्थानमें आहारककाययोगके समान २८ और २९ प्रकृतिरूप दो स्थान हैं। असंयतगुणस्थानमें कार्मणकाययोगवत् आदिके ६ स्थान हैं। चक्षु-अचक्षुदर्शनमें सर्वबन्धस्थान हैं और अवधि-केवलदर्शनमें अपने-अपने ज्ञानके समान बन्धस्थान जानना |
विशेषार्थ- देशसंयमसहित तिर्यञ्चमें देवगतिसंयुक्त २८ प्रकृतिका ही स्थान है। असंयममें कार्मणकाययोगवत् २३-२५-२६-२८-२९ व ३० प्रकृतिक आदिके छहस्थान हैं। यहाँ मिथ्यात्व और सासादनगुणस्थानवर्ती नारकीके पञ्चेन्द्रियपर्यामतिर्यञ्च व मनुष्यगतिसहित २९ प्रकृतिका और तिर्यञ्च व उद्योतसहित ३० प्रकृतिरूप ये दो स्थान हैं। मिश्रगुणस्थानमें मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिका ही स्थान है। धर्मादितीन नरकवियोंमें असंयतगुणस्थानवर्ती नारकियोंके मनुष्यगतिसहित २९ प्रकृतिका और मनुष्यगति व तीर्थङ्करसहित ३० प्रकृतिका ये दो स्थान हैं। अवशेष पृथ्वियोंमें मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिका स्थान है। तिर्यञ्चगतिमें २३-२५-२६-२८-२९ और ३० प्रकृतिरूप ६ स्थान हैं, किन्तु यहाँ विशेषता यह है कि पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रिय तथा विकलत्रयमें एवं अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियमें नरकगति या देवगतिसहित २८ प्रकृतिरूप बन्धस्थान नहीं है क्योंकि 'पुण्णिदरं विगिदगले' के अनुसार वहाँ उसका बन्ध नहीं आता। बादर- सूक्ष्मयान-अपाततजकाधिक-वातकायिकमें मनुष्यगतिअपर्याप्तसंयुक्त २५ प्रकृतिका और पर्याप्तमनुष्यगतियुत २९ प्रकृतिका ये दोनों स्थान नहीं हैं। प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी विराधना करके सासादनगुणस्थानको प्राम हुआ तिर्यंच, तिर्यञ्चगति व मनुष्यगतिसहित २९ प्रकृतिका, तिर्यञ्च व उद्योतयुक्त ३० प्रकृतिका तथा देवगतिसहित २८ प्रकृतिका इसप्रकार ३ स्थान बाँधता है। मरणकर नरकबिना अन्य गतियों में उत्कृष्टसे एक समयकम छहआवली और जघन्यसे एकसमयपर्यन्त अपर्याप्तावस्थामें सासादनगुणस्थान होता है इसलिए सासादनगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च हैं सो 'णहि सासणो अपुण्णे साहरण सुहुमगे य तेउ दुगे' इस वचनसे एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सज्ञी-असञ्जीपञ्चेन्द्रिय जीव ही अपर्याप्तावस्थामें सासादनगुणस्थानवर्ती होते हैं और वे नरकगति या देवगतिसंयुक्त २८ प्रकृतिके स्थानको नहीं बाँधता हुआ शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले ही सासादनपना छोड़कर नियमसे मिथ्यादृष्टि होकर पर्याप्तावस्थाके अनन्तर ही नरकगति या देवगतिसहित २८ प्रकृतिक स्थानको बांधता है। 'मिच्छदुगे देवचऊ तित्थं णहि' इस वचनसे सञी-असञी भी अपर्याप्तावस्थासहित सासादनगुणस्थानमें २८ प्रकृतिरूप स्थान नहीं बाँधते हैं तथा मिश्र व असंयतगुणस्थानवी तिर्यञ्च संज्ञीपर्याप्त हैं, वे मिश्रगुणस्थानमें तो देवगतियुत २८ प्रकृतिका ही बन्ध करते हैं, क्योंकि ‘उवरिम छण्हं च छिदीसासणसम्मे' इस वचनसे तिर्यञ्च-मनुष्यगतिके बन्ध का इसके अभाव है। असंयतगुणस्थानमें भी पूर्वोक्त स्थान बँधते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चजीवके आहारकद्विक व तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध नहीं है। मनुष्यगतिमें लब्ध्यपर्याप्तमनुष्यके
१. प्रा.पं.सं.पृ. ५०५ गाथा ४४९। २. प्रा.पं.सं.पृ. ५०६ गाधा ४५२। ३. प्रा.पं.सं.पृ. ५०६ गाथा ४५३ । ४. २३-२५-२६-२८-२९-३०-३१-५ ये आठ बन्धस्थान हैं (प्रा.पं.सं.पृ. ५.०६-५०७ गाथा ४५३-४५४)।)