Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४९२
अथानन्तर नामकर्मके बन्धस्थानोंके भङ्ग कहते हैं
संठाणे संहडणे विहायजुम्मे य चरिमछज्जुम्मे।
अविरुद्धक्कदरादो बंधट्ठाणेसु भंगा हु॥५३२ ॥ अर्थ-६ संस्थान और ६ संहनन में से तथा प्रशस्त-अप्रशस्तविहायोगतियुगल, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशल्कीर्तिके ६ युगल इन सभी से एक-एक प्रकृतिका बन्ध पाया जाता है अतः इन सभीका (६४६x२x२x२x२x२x२x२) परस्परमें गुणा करनेसे ४६०८ भङ्ग होते हैं।
तत्थासत्थो णारयसव्वापुण्णेण होदि बंधो दु।
एक्कदराभावादो, तत्थेक्को चेव भंगो दु ।।५३३॥ अर्थ- बन्धरूप उन प्रशस्त और अप्रशस्तप्रकृतियोंमें नरकगतिसहित हुण्डकसंस्थान, अप्रशस्तविहायोगतिआदि एक-एक अप्रशस्तप्रकृति का बन्ध है तथा वस-स्थावर लब्ध्यपर्याप्तकोंके अपर्याप्तसहित दुर्भग, अनादेयआदि अप्रशस्तप्रकृतियोंका बन्ध है, क्योंकि इनमें बन्धयोग्य प्रकृतिकी प्रतिपक्षीप्रकृतिका बन्ध नहीं है। अतः जो ४१ पद कहे थे उनमें नरकगतिसहित २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें एवं एकेन्द्रियके लब्ध्यपर्याप्तसम्बन्धी ११ पदोंके २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमें और त्रस लब्ध्यपर्याप्तकोंमें ६ पदोंके २५ प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक-एक ही भङ्ग है।
तत्थासत्थ एदि हु, साहारणथूलसव्वसुहुमाणं ।
पज्जत्तेण य थिरसुहजुम्मेक्कदरं तु चदुभंगा।।५३४ ॥ अर्थ- एकेन्द्रियके ११ भेदोंमें बादरपर्याप्तसाधारणवनस्पति और सभी पर्याप्तसूक्ष्मों में पर्याप्तसहित २५ प्रकृतिक स्थानोंमें एक-एक अप्रशस्तप्रकृतिका ही बन्ध होता है। विशेष इतना है कि स्थिर-अस्थिर
और शुभ-अशुभ इन दोनों युगलोंमें से किसी एक प्रशस्त अथवा अप्रशस्तप्रकृतिका बन्ध होता है अत: यहाँ चार भङ्ग हैं।
पुढवीआऊतेऊवाऊपत्तेयवियलसण्णीणं।
सत्थेण असत्थं थिरसुहजसजुम्मट्ठभंगा हु॥५३५ ।। अर्थ-बादरपर्याप्तपृथ्वी-अप्-तेज-वायु-प्रत्येकवनस्पतिके २५-२६ प्रकृतिक बन्धस्थानोंमें तथा पर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिंद्रिय-असीपञ्चेन्द्रियके २९-३० प्रकृतिरूप बन्धस्थानोंमें दुर्भग-अनादेय का ही बन्ध है। स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशस्कीर्ति-अयशस्कीर्ति इन तीनयुगलों से किसी एकएक प्रशस्त अथवा अप्रशस्तप्रकृतिका बन्ध होनेके कारण आठ-आठ भङ्ग होते हैं।