Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४९३ अब सीपञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिर्यञ्च और पर्याप्त मनुष्यमें २९ व ३० प्रकृतिक बन्धस्थानोंमें गुणस्थानोंकी विवक्षा से भङ्गोंका कथन करते हैं
सण्णिस्स मणुस्सस्स य, ओघेक्कदरं तु मिच्छभंगा हु।
छादालसयं अट्ठ य, बिदिये बत्तीससयभंगा ।।५३६॥ अर्थ- सञ्जीपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चसहित २९ प्रकृतिक बन्धस्थान और उद्योतसहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थानमें तथा पर्याप्तमनुष्यसहित २९ प्रकृतिक बन्धस्थानमें छहसंस्थान, छहसंहनन एवं विहायोगति-स्थिर-शुभ-सुभग-सुस्वर, आदेय-यशस्कीर्तियुगलमें से किसी एक-एक प्रकृतिका बन्ध सम्भव है अतएव (६४६४२४२४२४२४२४२४२) इनको परस्परमें गुणा करनेसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें ४६०८ भङ्ग होते हैं। इन्हीं बन्धस्थानोंके सासादनगुणस्थानमें हुण्डकसंस्थान और सृपाटिकासंहननका बन्ध न होने से ५ संस्थान, ५ संहननमें से एक-एक का ही बन्ध सम्भव है इसलिए (५४५४२x२x२x२x२x२x२) इनका परस्पर गुणाकरनेसे सासादमगुणस्थानमें ३२०० भङ्ग होते हैं। सन्दृष्टि इसप्रकार है
मिथ्यादृष्टितिर्यञ्चमें २९ प्रकृतिरूप स्थानके भङ्ग ४६०८ मिथ्यादृष्टितिर्यञ्चमें ३० प्रकृतिरूप स्थानके भङ्ग ४६०८ मिथ्यादृष्टिमनुष्यमें २९ प्रकृतिरूप स्थानके भङ्ग ४६०८ सासादनवर्ती तिर्यञ्चमें २९ प्रकृतिरूप स्थानके भङ्ग ३२०० सासादनवर्ती तिर्यञ्चमें ३० प्रकृतिरूप स्थान के भङ्ग ३२०० सासादरवर्ती मनुष्यमें २९ प्रकृतिरूप स्थान के भङ्ग ३२०० मिस्साविरदमणुस्सट्ठाणे मिच्छादिदेवजुदठाणे ।
सत्थं तु पमत्तंते, थिरसुहजसजुम्मगट्ठभंगा हु।।५३७ ।। अर्थ- मिथ तथा असंयतगुणस्थानवर्ती देव-नारकीके पर्याप्तमनुष्यगति सहित २९ प्रकृतिके स्थानमें तथा असंयतदेव-नारकीके मनुष्यगतिपर्याप्त व तीर्थङ्कर सहित ३० प्रकृतिक स्थानमें स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ, यशस्कीर्ति-अयशस्कीर्ति इन तीन युगलों में से किसी एक-एक प्रकृतिका बन्ध होनेसे ८-८ भङ्ग होते हैं।
१. प्रा.पं.सं. पृ. ३३८ गा. ६२।