Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४६०
उपर्युक्त सर्वस्थानों में २४-२४ भंग हैं। १० प्रकृतिरूप उदयस्थानों में क्रोधादि चार कषायों का उदय एक-एक वेद के साथ होने से १२ भंग होते हैं सो इन १२ भंगों में हास्य-रति अथवा अरति-शोक का गुणा करने से २४ भंग होते हैं। इसी प्रकार अन्य स्थानों में भी २४-२४ भंग जानने तथा दो प्रकृतिरूप एक स्थान के २४ एवं एक प्रकृतिरूप १ स्थान के ११ भंग हैं। अथानन्तर दो और एक प्रकृति रूप स्थानों के भंगों का विधान कहते हैं
उदयट्ठाणं दोण्हं, पणबंधे होदि दोण्हमेकस्स।
चदुविहबंधट्ठाणे, सेसेसेयं हवे ठाणं ॥४८२ ।। अर्थ- अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पाँच प्रकृति का जहाँ बन्ध पाया जाता है ऐसे प्रथम भाग में तो कषाय-वेदरूप २ प्रकृति का उदय है। चार प्रकृति का जहाँ बन्ध पाया जाता है ऐसे द्वितीयभाग में भी एक समय तक एक वेद और एक कषायरूप दो प्रकृतियों का उदय रहता है, इस प्रकार इन दोनों में ३ वेद और सज्वलन कषाय चतुष्क में से एक-एक प्रकृति का उदय होने से दो प्रकृति रूप स्थान पाया जाता है तथा चार-तीन-दो और एक प्रकृति के बन्धस्थानों में तथा अबंधस्थान में क्रम से ४, ३, २, १ व १ सज्वलनकषायों में से एक कषाय का उदय होने से एक-एक प्रकृति रूप उदयस्थान हैं। अतएव वहाँ पर ४, ३, २, १, १ भंग होते हैं। इस प्रकार एक प्रकृति रूप उदयस्थान में भंग ११, द्विप्रकृति रूप उदयस्थान में भंग २४, कुल भंग २४+११-३५ होते हैं।
विशेषार्थ- अनिवृत्तिकरणस्य द्विकोदये इति पंचबन्धक-चतुर्बन्धकानिवृत्तिकरणभागयोस्त्रिवेदचतुःसंज्वलनानामेकैकोदयसम्भवं द्विप्रकृत्युदयस्थान स्यात् । तत्र संज्वलनक्रोधमान-माया-लोभश्चत्वार: त्रिभिदैर्हताः द्वादश: भंगा भवन्ति। द्विद्वादश द्वादश द्वादशेति ५ ४ । अर्थात् अनिवृत्तिकरणगुणस्थान में दो प्रकृतिक, पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान में १२ और १२ १३ ४ प्रकृतिकबन्धस्थान में १२ ये २४ भंग होते हैं। आगे इसी बात का विशेष कथन चार गाथासूत्रों में करते हैं
अणियट्टिकरणपढमा, संढित्थीणं च सरिस उदयद्धा ।
तत्तो मुहुत्तअंते, कमसो पुरिसादिउदयद्धा ॥४८३ ॥ अर्थ- अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग के प्रथम समय से सवेदभाग के अन्तसमय तक नपुंसकवेद और स्त्रीवेद के उदय का काल समान है तथा इससे पुरुषवेद और सज्वलनक्रोधादि चतुष्क का उदयकाल यथासम्भव क्रम से अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना।
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१. प्रा. पं. सं. पृ. ३२८।