Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ४८४
अर्थ- पूर्वोक्तप्रकारसे क्षपकश्रेणी चढ़नेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके जिस भाग में चारप्रकृतियोंका बन्ध होता है उसमें १३-१२ और ११ एवं चारप्रकृतिरूप सत्त्वस्थान हैं । ३ प्रकृतिका बन्ध करनेवालेको ३ प्रकृतिका, २ प्रकृतिका बन्ध करनेवालेको २ प्रकृतिका एवं १ प्रकृतिका बन्ध करनेवालेको १ प्रकृतिका सत्त्वस्थान पाया जाता है, किन्तु अन्तिम तीनबन्धस्थानोंमें नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टावलीकी विवक्षा नहीं है।
विशेषार्थ- नपुंसक वेदसहित श्रेणी चढ़नेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें जहाँ पुरुषवेदका बन्ध रुक गया है वहाँ मोहनीयकर्मकी चारप्रकृतियों का बन्ध पाया जाता है और १३ प्रकृतियोंका सत्त्व भी है। स्त्रीवेदके उदयसे जो श्रेणी चढ़ता है उसके चारप्रकृतियोंके बन्धम बारहप्रकृतियोंका सत्त्व भी है, किन्तु १३ प्रकृतिका सत्त्व नहीं है तथा जो नपुंसक व स्त्रीचेदके उदय से श्रेणीपर आरोहण करता है उसके अवेदभागमें चारप्रकृतिका बन्ध होते हुए ११ प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान है एवं ६ नोकषाय और पुरुषवेद का युगपत् क्षय होनेपर चारप्रकृतिरूप सत्त्वस्थान भी है। पुरुषवेदसहित श्रेणी चढ़नेवालेको चारप्रकृति के बन्धमें ५ व ४ प्रकृतिका सत्त्वस्थान है तथा पुरुषवेदकी सत्त्वव्युच्छित्ति हो जानेपर ४ प्रकृतिका सत्त्व है। तीनों वेदसहित श्रेणीपर आरोहण करनेवालेको सञ्ज्वलनक्रोधकी उदय-बन्ध और सत्त्वव्युच्छित्ति हो जानेपर ३ प्रकृतिका बन्ध एवं इन्हीं तीनका सत्त्व है। सञ्ज्वलनमानकी बन्ध-उदयसत्त्वव्युच्छित्ति होनेसे २ प्रकृतिका बन्ध और सत्त्व भी २ प्रकृतिका रहता है। सज्वलनमायाकी बन्धउदयसत्त्व व्युच्छित्ति हो जानेपर एकप्रकृतिका बन्ध एवं एकप्रकृतिका ही सत्त्व पाया जाता है, किन्तु विशेषता यह है कि ३-२ और १ प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानों में क्रोध-मान- मायाके नवकसमयप्रबद्ध व उच्छिष्टावलीकी विवक्षा नहीं है। इसी कारण पाँच प्रकृति रूप सत्त्वस्थान नहीं कहा गया है।
मोहनीयकर्मके बन्धस्थानोंमें सत्त्वस्थान किसप्रकार पाए जाते हैं उसे आगे दो गाथाओंमें
कहते हैं
तिण्णेव दुबावीसे, इगिवीसे अडवीस कम्मंसा । सत्तरतेरेणवबन्धगेसु पंचेव ठाणाणि ।।५१६ ॥
पंचविधचटुविधेसु य, छ सत्त सेसेसु जाण चत्तारि । उच्छिट्टावलिणवक, अविवेक्खिय सत्तठाणाणि ॥ ५१७ || जुम्मं ॥
अर्थ- मोहनीयकर्मके २२ प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें कर्माश अर्थात् २८, २७ और २६ प्रकृतिके तीन सत्त्वस्थान, २१ प्रकृतिरूप बन्धस्थानमें २८ प्रकृतिक एक सत्स्वस्थान, १७-१३ व ९ प्रकृतिके
९. देखो प्रा. पं. सं. पू. ३३०-३३२ गा. ४७-५० ।