Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ४८९
तीर्थङ्कर और आहारकद्विकसम्बन्धी कथन करते हैं
परगइणामरगइणा, तित्थं देवेण हारमुभयं च । संजदबंधट्ठाणं, इदराहि गईहि णत्थिति ॥५२५ ।।
अर्थ - तीर्थङ्करप्रकृतिको असंयतदेव या नारकी मनुष्यगतिसहित ही बाँधते हैं और असंयतादि पाँचगुणस्थानवर्ती मनुष्य देवगतिसहित ही बाँधते हैं। अप्रमत्त और अपूर्वकरणके छठे भागपर्यन्त आहारकद्विक अथवा तीर्थङ्करसहित आहारकद्विकका बन्ध संयतमनुष्य ही करते हैं, अन्यगतिसहित नहीं बाँधते हैं।
अब नामकर्मकी ध्रुवप्रकृतियोंको कहते हैं
णामस्स णवधुवाणि य, सरूणतसजुम्मगाणमेक्कदरं । गदिजादिदेहसंठाणाणूणेक्कं च सामण्णा । । ५२६ ॥ तसबंधेण हि संहदिअंगोवंगाणमेक्कदरगं तु । तप्पुण्णेण य सरगमणाणं पुण एगदरगं तु ॥ ५२७ ॥
पुणेण समं सव्वेणुस्साओ णियमदो दु परधादो । जोगट्टाणे तावं, उज्जीवं तित्थमाहारं ।।५२८ ॥ विसेसयं ॥
अर्थ - तैजस- कार्मण - अगुरुलघु-उपघात-निर्माण-स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण ये नामकर्म की ९ ध्रुवप्रकृतियाँ, स्वरबिना सादि ९ युगलों (त्रस-स्थावर, बादर - सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण, स्थिर अस्थिर, शुभ -अशुभ, सुभग-दुर्भग, आदेय- अनादेय, यशस्कीर्ति-अयशस्कीर्ति) में से एकएकप्रकृति अतः ये ९ प्रकृतियाँ तथा चारगति, ५ जाति, तैजस-कार्मणबिना ३ शरीर, ६ संस्थान और चार आनुपूर्वी में से एक-एक प्रकृतिका बन्ध होनेसे ५ प्रकृति ये इसप्रकार सर्व मिलकर (९+९+५= ) २३ प्रकृतियाँ सामान्यसे सभी जीवोंके बँधती है ।।५२६ ।।
मनुष्य था तिर्यञ्चसहित सप्रकृतिका बन्ध होनेपर ६ संहनन और अङ्गोपा में से एकएकप्रकृतिका बन्ध होता है। त्रस पर्याप्तसहित बंधक सुस्वर - दुःस्वर तथा प्रशस्त अप्रशस्तविहायोगति में से एक-एक प्रकृतिका बन्ध होता है ||५२७ ॥
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पर्याप्तसहित सभी बन्धकोंके उच्छ्वास और परघात बन्धयोग्य हैं एवं आतपउद्योत, तीर्थंकर और आहारकद्विक ये भी प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं जिसका कथन गाथा ५२५ में कर दिया गया है ।। ५२८ ।।