Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४४३
सगसंभवधुवबंधे, वेदेक्के दोजुगाणमेक्के य।
ठाणो वेदजुगाणं, भंगहदे होंति तब्भंगा॥४६६ ॥ अर्थ- अपनी-अपनी पूर्वोक्त ध्रुवप्रकृतियों में से यथासम्भव तीन वेदों में से एक वेद, हास्यशोक, रति-अरति में से एक-एक प्रकृति मिलाने से स्थान होते है तथा वेदों के प्रमाण में युगल का (हास्य-शोक, रति-अरति, भय-जुगुप्सारूप) गुणा करने पर स्थानों के भंग होते हैं।
छब्बावीसे चदु इगिवीसे दो दो हवंति छट्ठोत्ति ।
एकेक्कमदो भंगो बंधट्ठाणेसु मोहस्स ॥४६७॥' अर्थ- मोहनीय कर्म के बन्धस्थानों में २२ प्रकृतिक स्थान में ६, २१ प्रकृतिक स्थान में ४ और आगे प्रमत्तगुणस्थान पर्यंत दो-दो और उसके बाद सभी बन्धस्थानों में एक-एक भंग है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थान में मोहनीय कर्म की २२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उसके भंग ६ होते हैं जो निम्न प्रकार हैं१. मिथ्यात्व + सोलहकषाय + पुरुषवेद + हास्य-रति + भय-जुगुप्सा। २. मिथ्यात्व + सोलहकषाय + स्त्रीवेद + हास्य-रति + भय-जुगुप्सा। ३. मिथ्यात्व + सोलहकषाय + नपुंसकवेद + हास्य-रति + भय-जुगुप्सा। ४. मिथ्यात्व + सोलहकषाय + पुरुषवेद + अरति-शोक + भय-जुगुप्सा। ५. मिथ्यात्व + सोलहकषाय + स्त्रीवेद + अरति-शोक + भय-जुगुप्सा। ६. मिथ्यात्व + सोलहकषाय + नपुंसकवेद + अरति-शोक + भय-जुगुप्सा ।
सासादन गुणस्थान में मोहनीयकर्म की २१ प्रकृतियों का बन्ध होता है और उसके भंग चार हैं१. सोलहकषाय + पुरुषवेद + हास्य-रति + भय-जुगुप्सा। २. सोलहकषाय + स्त्रीवेद + हास्य-रति + भय-जुगुप्सा । ३. सोलहकषाय + पुरुषवेद + अरति-शोक + भय-जुगुप्सा। ४. सोलहकषाय + स्त्रीवेद + अरति-शोक + भय-जुगुप्सा।
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१. "छब्बाबीस चउगवीसे सनरस लेर दो दो दु। णवबंधए पि एवं एगेगमदो पर भंगा ।।२५१ ।। द्वाविंशतिकेषट् भंगा:६। एकविंशतिके चत्वारो भंगाः ४ । सप्तदशके द्विवार द्वौ द्वौ भंगौ २, २॥ त्रयोदशके नवकबन्धेऽपि प्रमत्तपर्यन्त द्वौ द्वौ भंगौ २.२ । अन्त उपरि सर्वस्थानेषु एकैको भंगः ॥२५१ ।।" प्रा. पं. सं. पृ. १९१