Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४४५ उपर्युक्त मोहनीय कर्म के १० बन्धस्थानों में पाए जाने वाले भुजकारबंधादिक की संख्या कहते हैं
दस वीसं एक्कारस, तेत्तीसं मोहबंधठाणाणि। ... भुगताप वाणि र, अन्मदिनाणिवि य सामण्णे ॥४६८ ।।
अर्थ- मोहनीय कर्म के पूर्वोक्त १० बन्धस्थानों में सामान्य प्रकार से भुजकार बंध २०, अल्पतरबन्ध ११ और अवस्थितबन्ध ३३ हैं।' भुजकार-अल्पतर-अवस्थितबन्ध का लक्षण आचार्य स्वयं अगली माथा में कहते हैं
अप्पं बंधतो, बहुबंधे बहुगादु अप्पबंधेवि।
उभयत्थ समे बंधे, भुजगारादी कमे होति ॥४६९।। अर्थ- पहले अल्पप्रकृतियों का बन्ध होकर पश्चात् अधिक प्रकृतियों का बन्ध होना भुजकार बन्ध है। पहले अधिक प्रकृतियों का बन्ध होवे और पश्चात् अल्पप्रकृतियों का बन्ध होने लगे सो यह अल्पतरबन्ध है। भुजकार एवं अल्पतरबन्ध में पहले जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता था बाद में भी उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध होवे वह अवस्थित बन्ध है तथा अपि' शब्द से इन स्थानों में अवक्तव्यबन्ध भी होता है।
नोट- पहले मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं था, किन्तु अगले समय में उसका बन्ध हुआ, यही अवक्तव्यबन्ध कहलाता है। अथानन्तर सामान्यअवक्तव्यबन्ध के भंगों की संख्या कहते हैं
सामण्णअवत्तब्वो, ओदरमाणम्मि एक्कयं भरणे ।
एक्कं च होदि एत्थवि, दो चेव अवट्टिदा भंगा॥४७० ।। अर्थ- सामान्य से (भंगों की विवक्षा किए बिना) उपशमश्रेणी से उतरते हुए एक अवक्तव्यबन्ध है और दूसरा अवक्तव्यबन्ध वहीं पर मरण होने से होता है। इस प्रकार दो अवक्तव्यबंध हैं तथा द्वितीयादि समयों में उसी प्रकार बंध होने पर यहाँ अवस्थितबंध भी दो ही होते हैं।
१. भुजकाराः विंशतिः २० । अल्पतरबन्धा एकादश ११ । अवक्तव्यौ २। एवं सर्वे एकीकृता संक्षेपेणावस्थितबन्धास्त्रयविंशत (३३)भवन्ति।