Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४४०
णव छक्क चदुक्कं च य, बिदियावरणस्स बंधठाणाणि।
भुजगारप्पदराणि य, अवट्टिदाणिवि य जाणाहि ॥४५९॥ अर्थ-दर्शनावरणकर्म की सर्व ९ प्रकृति रूप प्रथम, स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राबिना ६ प्रकृति रूप द्वितीय और निद्रा-प्रचलाप्रकृति बिना ४ प्रकृति रूप तृतीय इस प्रकार तीन बन्धस्थान हैं तथा इनमें भुजकार, अल्पतर और अवस्थित एवं अपि' शब्द से अवक्तव्य, ये चारों प्रकार के बन्ध होते हैं।
विशेषार्थ- उपशमश्रेणी से उतरने वाला अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग में चार प्रकृति रूप दर्शनावरणकर्म को बाँधकर अपूर्वकरणगुणस्थान के ही प्रथमभाग में ६ प्रकृति रूप बाँधने लगा, यह एक भुजकार बन्ध है । प्रमत्त, देशसंयत, असंयत और मिश्रगुणस्थान में छह प्रकृति रूप स्थान बाँधते हुए मिथ्यात्वावस्था को प्राप्त कर तथा प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि सासादनगुणस्थान को प्राप्त कर ९ प्रकृति रूप स्थान मा सो सह एक बुजकार । इस प्रकार २ भुजकारबन्ध जानने। प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख हुआ सातिशयमिथ्यादृष्टि अनिवृत्तिकरणपरिणामों के अन्तिमसमय में ९ प्रकृति रूप स्थान बाँधता है तथा अनन्तर समय में असंयत, देशसंयत अथवा अप्रमत्त होकर ६ प्रकृतिकस्थान बाँधता है यह एक अल्पतरबन्ध है। तथैव उपशमक व क्षपक अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग के चरमसमय में छह प्रकृति रूप स्थान का बन्ध करता है वही द्वितीय भाग के प्रथम समय में चार प्रकृतिरूप स्थान बाँधने लगा सो एक यह अल्पतर हुआ, इस प्रकार दो अल्पतरबन्ध जानना। मिथ्यादृष्टि अथवा सासादनसम्यग्दृष्टि ९ प्रकृति रूप, मिश्रगुणस्थान से अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग पर्यंत ६ प्रकृति रूप और अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग से सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान पर्यंत चार प्रकृति रूप स्थान का बन्ध करता है, अनन्तरसमय में भी उतनी ही प्रकृति रूप स्थानों का बन्ध करे तो इस प्रकार अवस्थित बन्ध के तीन प्रकार हुए। उपशांतकषायगुणस्थानवी जीव दर्शनावरण का बन्ध नहीं करता, किन्तु उपशमश्रेणी से उतरते हुए सूक्ष्मसाम्पराय के प्रथम समय में चार प्रकृति रूप तथा बद्धायुष्क मरणकर देव असंयत होकर छह प्रकृति रूप स्थान का अवक्तव्यबन्ध करता है। इस प्रकार अवक्तव्यबन्ध को दो प्रकार जानना। यही बात और भी स्पष्ट करते हैं
णव सासणोति बंधो, छच्चेव अपुव्वपढमभागोत्ति।
चत्तारि होति तत्तो, सुहमकसायस्स चरिमोत्ति ॥४६०॥ अर्थ- दर्शनावरणकर्म का ९ प्रकृतिकस्थान सासादनगुणस्थान पर्यंत होता है, इसके आगे अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथमभाग पर्यंत ६ प्रकृतिकस्थान और अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग से सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के चरमसमयपर्यंत ४ प्रकृतिकस्थान का बन्ध होता है।