Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गुणस्थान
असंयत
देशसंयत
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ३३५
क्षायिकसम्यक्त्व में असत्त्व - सत्त्व - सत्त्वव्युच्छित्तिसम्बन्धी सन्दृष्टि - सत्त्वयोग्यप्रकृति १४१, गुणस्थान ११
असत्त्व सत्त्व
१.४१
१३९
अनिवृत्तिकरण से अयोगीपर्यन्त
D
२
प्रमत्त
२
अप्रमत्त
२
अपूर्वकरण ३
१३९
१३९
१३८
सत्त्व
व्युच्छित्ति
२
C
०
१
०
विशेष
२ ( नरकायु - तिर्यञ्चायु)
इस गुफा में
हो
सकता है, किन्तु तिर्यञ्च नहीं हो सकता है।
१ (देवायु- क्षपकश्रेणी की अपेक्षा) क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा पहले देवायु का बन्ध होने से कोई क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणी चढ़ता हो तो उसके १३९ प्रकृति का सत्त्व रह सकता है, यदि वा बन्ध नहीं हुआ हो तो १३८ प्रकृति का सत्त्व रहेगा।
यहाँ सर्वकथन गुणस्थानवत् गाथा ३४२ की सन्दृष्टि अनुसार जानना ।
सम्यग्मिथ्यात्व में तीर्थङ्करप्रकृतिबिना १४७ प्रकृति का सत्त्व है। गुणस्थान एक सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) | सासादनसम्यक्त्वमार्गणा में तीर्थकर और आहारकद्विक बिना सत्त्वयोग्यप्रकृति १४५ हैं । गुणस्थान एक सासादन ही है। मिथ्यात्व में सत्त्वयोग प्रकृति १४८ हैं तथा गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही है ।
सञ्जीमार्गणा में सत्त्वप्रकृति १४८ हैं तथा गुणस्थान मिथ्यात्व से क्षीणकषायपर्यन्त १२ हैं । सत्त्वादि का सर्वकथन गुणस्थानवत् ही जानना । असजीमार्गणा में पा तित्थयरं इस बचन से तीर्थङ्करप्रकृति का सत्त्व नहीं होने से १४७ प्रकृति का सत्त्व है। गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो ही हैं। मिथ्यात्वगुणस्थान में असत्त्व नहीं होने से सत्त्वप्रकृति १४७ हैं। सासादनगुणस्थान में आहारकद्विक का सत्त्व नहीं होने से १४५ प्रकृति का ही सत्त्व है । आहारमार्गणा में सत्त्वप्रकृति १४८, गुणस्थान मिथ्यात्व से सयोगीपर्यन्त १३ हैं, सत्वादि का सर्वकथन गुणस्थानवत् ही जानना |
अनाहारमार्गणा में सत्त्वादि का कथन करके सत्त्व अधिकार को पूर्ण करते हैं
कम्मेवाणाहारे, पयडीणं सत्तमेवमादेसे |
कहियमिणं बलमाहवचंदच्चियणेमिचंदेण || ३५६ ||
अर्थ- अनाहारमार्गणा में कार्मणकाययोग के समान सत्त्वादि का कथन जानना । इस प्रकार बलदेव और माधवचन्द्र से अर्चित ऐसे नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है ।