Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३४७
बद्घायुष्क का चतुर्थसत्त्वस्थान भुज्यमान-बध्यमानआयुबिना दो आयु, आहारकचतुष्क और तीर्थंकर इन ७ प्रकृति के बिना १४१ प्रकृति रूप जानना । यहाँ पूर्वोक्त १२ भङ्गों में से दोपुनरुक्त और ५ समान भङ्गों के बिना शेष ५ भङ्ग जानना । तथैव अबद्धायुष्क का चतुर्थसत्त्वस्थान भुज्यमानआयुबिना शेष तीन आयु, आहारकचतुष्क और तोर्थकरबिना १४० प्रकृतिरूप जानना। यहाँ भुज्यमान चार आयु की अपेक्षा चार भङ्ग हैं।
___ बद्घायुष्क का पञ्चमसत्त्वस्थान भुज्यमान-बध्यमानआयुबिना दोआयु, आहारकचतुष्क, तीर्थकर और सम्यक्त्वप्रकृति इन आठप्रकृति के बिना १४० प्रकृतिरूप है। यहाँ पूर्वोक्त प्रकार ही ५ भंग जानने । अर्थात् पूर्वकथित १२ भंगों में से २ पुनरुक्त और ५ समानभंगबिना शेष ५ भंग हैं। अबद्धायुष्क का पञ्चमसत्त्वस्थान पूर्वोक्त १४० प्रकृति में से बध्यमानआयुबिना १३९ प्रकृतिरूप जानना। यहाँ भी चारआयु के भेद से चारभंग हैं।
बद्धायुष्क की अपेक्षा छठा सत्त्वस्थान भुज्यमान-बध्यमानआयु बिना दोआयु, तीर्थङ्करप्रकृति, आहारकचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्बग्मेिथ्यात्वप्रकृतिबिना १३९ प्रकृतिरूप जानना। यहाँ पर भंग पूर्वोक्त प्रकार ५ ही जानने । तथैव अबद्धायुष्क की अपेक्षा उपर्युक्त १३९ प्रकृतियों में से बध्यमानआयुबिना १३८ प्रकृतिरूप है। यहाँ भंग चारगति की अपेक्षा चार हो जानना।
___ बद्धायुष्क की अपेक्षा देवद्विककी उद्वेलना जिनके हो गई है ऐसे एकेन्द्रिय, विकलत्रयजीवों के भुज्यमानतिर्यञ्चायु व बध्यमानमनुष्यायुबिना शेष देवायु और नरकायु, आहारकचतुष्क, तीर्थंकर, सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी इन ५१ प्रकृतिबिना १३७ प्रकृतिरूप सातवाँ सत्त्वस्थान जानना । यहाँ एकेन्द्रिय व विकलत्रयसम्बन्धी भुज्यमानतिर्यञ्चायु-बध्यमानतिर्यञ्चायु तथा भुज्यमान तिर्यञ्चायु-बध्यमानमनुष्यायु ये दो भंग हैं। उनमें भुज्यमानतिर्यञ्चायु, बध्यमान-तिर्यञ्चायु यह पुनरुक्त भंग है अतः यहाँ नहीं गिना, इस कारण एक ही भंग जानना। उद्वेलना का स्वरूप जो पहले कहा है, वही यहाँ जानना।
अब मियादृष्टि के किसी-किसी स्थान के भङ्ग कहते हुए अबद्धायुष्क की अपेक्षा सातवें सत्त्वस्थानसम्बन्धी चारभङ्ग दो गाथाओं से कहते हैं
उव्वेल्लिददेवदुगे, बिदियपदे चारि भंगया एवं । सपदे पढमो बिदियं, सो चेव णरेसु उप्पण्णो॥३६८॥ वेगुव्वअट्ठरहिदे, पंचिंदियतिरियजादिसुववण्णे। सुरछब्बंधे तदियो णरेसु तब्बंधणे तुरियो॥३६९।।जुम्मं ॥