Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४१२
प्रशस्तवर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, अगुस्लघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर आदि छह और निर्माण; इनकी बंधन्युच्छित्ति हो जाने पर विध्यात अथवा गुणसंक्रम क्यों नहीं होता? :
HTER KE समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे प्रशस्तप्रकृतियाँ हैं।
सञ्चलनलोभ का एक अध:प्रवृत्तसक्रम ही होता है, क्योंकि बंध के होने पर ही आनुपूर्वीसंक्रम (सज्वलनक्रोध का सज्वलनमानादि में, सज्वलनमान का सज्वलनमायादि में, इत्यादि) द्वारा उनका संक्रम होता है।
शंका- इन प्रकृतियों का सर्वसंक्रम क्यों नहीं होता?
समाधान- नहीं, क्योंकि अन्य प्रकृतियों में क्षेपण करके इनका विनाश नहीं होता, स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्रा, बारहकषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजाति, तिर्यग्पतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर; इन तीस प्रकृतियों के उद्वेलनसंक्रमण बिना शेष चार संक्रम होते हैं। यथा-स्त्यानगृद्धित्रय, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, तिर्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और अनन्तानुबंधीचतुष्क का मिथ्यात्व से सासादन गुणस्थान तक अध:प्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ इनका बन्ध पाया जाता है। सम्बग्मिथ्यात्वरूप मिश्रगुणस्थान से अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक उनका विध्यातसंक्रमण होता है, क्योंकि वहाँ उनके बंध का अभाव है। क्षपकअपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथमसमय से लेकर अपने-अपने अन्तिमस्थितिकाण्डक की द्विचरमफालि तक उनका गुणसंक्रमण होता है तथा अन्तिमफालि का सर्वसंक्रमण होता है।
नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर का मिथ्यात्वगुणस्थान में अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि वहां पर इनका बंध पाया जाता है। सासादनगुणस्थान से अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि अप्रशस्तता के होने पर वहाँ बन्ध का अभाव है। एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण; इनका देव व नारकमिथ्यादृष्टियों में विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि उनके इनका बन्ध नहीं होता। विशेष इतना है कि एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर प्रकृति के ईशानकल्प तक के देव अध:प्रवृत्तसंक्रम के द्वारा संक्रामक हैं, क्योंकि उनमें इनका बध देखा जाता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय से अन्तिम स्थितिक्राण्डक की द्विचरमफालि तक इन प्रकृतियों का गुणसंक्रमण होता है, क्योंकि अप्रशस्तता के होने पर उनके बन्ध का अभाव है, इनकी अन्तिमफालि का सर्वसंक्रम होता है, क्योंकि उसका विनाश निक्षेपपूर्वक होता है।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क का मिथ्यात्व से असंयतगुणस्थान तक अध:प्रवृत्तसंक्रम होता है,