Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४१५
सम्मविहीणुव्वेल्ले पंचेव य तत्थ होंति संकमणा।
संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य॥४२४ ।। अर्थ-- सम्यक्त्व प्रकृति बिना उद्वेलनारूप १२ प्रकृतियों में पाँचों संक्रमण होते हैं तथा सज्वलनक्रोधादि तीन और पुरुषवेद में अध:प्रवृत्त एवं सर्वसंक्रमण ही पाए जाते हैं। इन प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति होते हुए भी गुणसंक्रमण की प्राप्ति नहीं होती है।
___ विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्व, देवगति, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकअंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारकशरीर, आहारकशरीरअंगोपांग नामकर्म और उच्चगोत्र इन बारह प्रकृतियों के पाँच संक्रमण होते हैं। यथामिथ्यात्व को प्राप्त सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मुहूर्तकाल सम्यग्मिथ्यात्व का अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है। उसके आगे पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र काल तक सम्यग्मिथ्यात्व का उद्वेलनसंक्रम होता है। अन्तिमकाण्डक में उसकी ही द्विचरमफालि तक गुणसंक्रम होता है। चरमफालि का सर्वसक्रम होता है। दर्शनमोहक्षपकअपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डक की द्विचरमफालि तक सम्यग्मिथ्यात्व का गुणसंक्रम होता है। उसकी अन्तिम फालि का सर्वसंक्रम होता है। उपशमसम्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि के उसका अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रतिभागवाला विध्यातसंक्रम होता है।
देवगति और देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी का मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर अपूर्वकरणगुणस्थान के सात भागों में से छठे भाग पर्यंत अध:प्रवृत्तसक्रम होता है, क्योंकि वहाँ इनका बन्ध पाया जाता है। उसके आगे बन्ध का अभाव होने पर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि वे प्रशस्तप्रकृत्तियाँ हैं। देव-नारकियों में उनका विध्यातसक्रम होता है, क्योंकि उनके इनका बन्ध नहीं होता। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में उद्वेलन के अन्तिमकाण्डक के प्राप्त न होने तक उनका उद्वेलनसंक्रमण होता है। अंतिमकाण्डक में उसी की द्विचरमफालि तक गुणसंक्रम होता है तथा अंतिमफालि का सर्वसंक्रम होता
वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरअंगोपांग प्ररूपणा देवगति के समान है। नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी की भी प्ररूपणा देवगति के समान है। विशेष इतना है कि मिथ्यात्वगुणस्थान में ही इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। सासादनगुणस्थान से अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक उनका विध्यातसंक्रम होता है। देव-नारकियों में भी इनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि देव-नारकियों के इनका बन्ध नहीं होता। अपूर्वकरणगुणस्थान से अपने अन्तिमस्थितिकाण्डक की द्विचरमफालि तक उनका गुणसंक्रम और
अन्तिमफालि का सर्वसंक्रम होता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में उनका उद्वेलनसंक्रम होता है। उद्वेलन के अन्तिमकाण्डक में (द्विचरमफालि तक) उनका गुणसंक्रम और उसी की अन्तिमफालि का सर्वसंक्रम होता है। इस प्रकार उक्त दो प्रकृतियों के पाँच संक्रम होते हैं।