Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-४३२
नहीं है, किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षण करने के लिए शक्य है; ऐसे प्रदेशाग्र की नित्ति संज्ञा है।'
निकाचित- “जं पदेसगं ओकड्डिहूँ गो सकं, उक्कड्डि, णो सवं, अण्णपयडिं संकामि, णो सकं, उदए दादु णो सक्कं तं पदेसग्गं णिकाचिदं णाम।" अर्थात् जो कर्मप्रदेशाग्न अपकर्षण करने के लिए शक्य नहीं है, उत्कर्षण के लिए शक्य नहीं हैं, अन्य प्रकृति में संक्रान्त करने के लिए शक्य नहीं है तथा उदय में देने के लिए भी शक्य नहीं है; उस प्रदेशाग्र को निकाचित कहते हैं। "जं पदेसगं या सक्तमोकविदुमुक्कद्विदुमण्णपयडिसंकामेदुमुदए दातुं वा तण्णिकाचिदं णाम।" अर्थात् जो प्रदेशाग्र अपकर्षण-उत्कर्षण के लिए, अन्य प्रकृति रूप परिणमाने के लिए और उदय में देने के लिए शक्य नहीं है वह निकाचित कहलाता है। "जं पुण कम्मं चदुण्णभेदेसि उदयादीणमप्पाओग्गं होदूणावहाणपइण्णं तस्स तहावट्ठाणलक्खणो पजायविसेसो णिकाचणाकरणं णाम।" जो कर्म इन चारों (उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण) के अयोग्य होकर अवस्थान की प्रतिज्ञा में प्रतिबद्ध है उसकी उस अवस्थान लक्षण पर्यायविशेष को निकाचनाकरण कहते हैं।
दश करणों का स्वरूप कहकर आगे कर्मप्रकृतियों तथा गुणस्थानों में इनका कथन करते हैं
संकमणाकरणूणा, णवकरणा होति सव्वआऊणं।
सेसाणं दसकरणा, अपुव्वकरणोत्ति दसकरणा ॥४४१॥ अर्थ- चारों आयु में संक्रमण करण के बिना ९ करण पाये जाते हैं, क्योंकि चारों आयु परस्पर में परिणमन नहीं करतीं। शेष बन्धयोग्य सर्वप्रकृतियों में दश करण होते हैं तथा मिथ्यात्व से अपूर्वकरणगुणस्थान पर्यन्त तो दशों करण पाये जाते हैं।
आदिमसत्तेव तदो, सुहमकसाओत्ति संकमेण विणा।
छच्च सजोगित्ति तदो, सत्तं उदयं अजोगित्ति ।।४४२ ।। अर्थ- अपूर्वकरणगुणस्थान के आगे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान पर्यन्त उपशान्त, निधत्ति और निकाचितकरण के बिना आदि के सातों करण पाये जाते हैं, क्योंकि अनिवृत्तिकरणपरिणामों के द्वारा उपशान्त, निधत्ति और निकाचितकरण टूट जाता है तथा संक्रमण, उपशान्त, निधत्ति और निकाचितकरण
२. धवल पु. १६ पृ. ५१७)
३.ध.पु.९ पृ. २३६।
१. ध. पु. १६ पृ. ५१६। ४. जयधवल पु. १३ पृ. २३१।